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________________ परिशिष्ट १६७ करती और न देशघातिनी ही मानी जाती हैं; पर जब उनका क्षयोपशम विपाकोदय से मिश्रित होता है, तब वे स्वावार्य गुण का कुछ घात करती हैं और देशघातिनी कहलाती हैं। (ख) घातिकर्म की बीस प्रकृतियाँ सर्वघातिनी हैं। इनमें से केवलज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण, इन दो का तो क्षयोपशम होता ही नहीं; क्योंकि उनके दलिक कभी देशघाति-रसयुक्त बनते ही नहीं और न उनका विपाकोदय ही रोका जा सकता है। शेष अठारह प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जिनका क्षयोपशम हो सकता है; परन्तु यह बात, ध्यान में रखनी चाहिये कि देश घातिनी प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय, जैसे विपाकोदय होता है, वैसे इन अठारह सर्वघातिनी प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय नहीं होता, अर्थात् इन अठारह प्रकृतियों का क्षयोपशम, तभी सम्भव है, जब उनका प्रदेशोदय ही हो। इसलिये यह सिद्धान्त माना है कि ‘विपाकोदयवती प्रकृतियों का क्षयोपशम, यदि होता है तो देशघातिनी ही का, सर्वघातिनी का नहीं । अतएव उक्त उठारह प्रकृतियाँ, विपाकोदय के निरोध के योग्य मानी जाती हैं; क्योंकि उनके आवार्य गुणों का क्षायोपशमिक स्वरूप में व्यक्त होना माना गया है, जो विपाकोदय के निरोधके सिवाय घट नहीं सकता। (२) उपशम - क्षयोपशम की व्याख्या में, उपशम शब्द का जो अर्थ किया गया है, उससे औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ कुछ उदार है। अर्थात् क्षयोपशम के उपशम शब्द का अर्थ सिर्फ विपाकोदयसम्बन्धिनी योग्यता का अभाव या तीव्र रस का मन्द रस में परिणमन होना है; पर औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ प्रदेशोदय और विपाकोदय दोनों का अभाव है; क्योंकि क्षयोपशम में कर्म का क्षय भी जारी रहता है, जो कम से कम प्रदेशोदय के अतिरिक्त हो ही नहीं सकता। परन्तु उपशम में यह बात नहीं, जब कर्म का उपशम होता है, तभी से उसका क्षय रुक ही जाता है, अतएव उसके प्रदेशोदय होने की आवश्यकता ही नहीं रहती। इसी से उपशम अवस्था तभी मानी जाती है, जब कि अन्तरकरण होता है । अन्तरकरण के अन्तर्मुहूर्त में उदय पाने के योग्य दलिकों में से कुछ तो पहले ही भोग लिये जाते हैं और कुछ दलिक पीछे उदय पाने के योग्य बना दिये जाते हैं, अर्थात् अन्तरकरण में वेध- दलिकों का अभाव होता है। अतएव क्षयोपशम और उपशम की संक्षिप्त व्याख्या इतनी ही की जाती है कि क्षयोपशम के समय, प्रदेशोदय का या मन्द विपाकोदय होता है, पर उपशम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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