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चौथा कर्मग्रन्थ
उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीव सबसे थोड़े हैं। क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीव उनसे संख्यातगुण हैं। सूक्ष्मसंपराय, अनिवृत्तिबादर और अपूर्वकरण, इन तीन गुणस्थानों में वर्तमान जीव क्षीणमोह गुणस्थानवालों से विशेषाधिक हैं, आपस में तुल्य हैं ।। ६२॥
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भावार्थ- बारहवें गुणस्थान में अन्तिम आवलिका को छोड़कर अन्य सब समय में आयु, वेदनीय और मोहनीय के अतिरिक्त पाँच कर्म की उदीरणा होती रहती है । अन्तिम आवलिका में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय की स्थिति आवलिका - प्रमाण शेष रहती है। इसलिये उस समय उनकी उदीरणा रुक जाती है। शेष दो (नाम और गोत्र) की उदीरणा रहती है।
तेरहवें गुणस्थान में चार अघातिकर्म ही शेष रहते हैं। इनमें से आयु और वेदनीय की उदीरणा तो पहले से रुकी हुई है। इसी कारण इस गुणस्थान में दो कर्म की उदीरणा मानी गई है।
चौदहवें गुणस्थान में योग का अभाव है। योग के अतिरिक्त उदीरणा नहीं हो सकती, इस कारण इसमें उदीरणा का अभाव है।
सारांश यह है कि तीसरे गुणस्थान में आठ ही का उदीरणास्थान, पहले, दूसरे, चौथे, पाँचवें और छठे में सात तथा आठ का, सातवें से लेकर दसवें गुणस्थान की एक आवलिका शेष रहे तब तक छः का, दसवें की अन्तिम आवलिका से बारहवें गुणस्थान की चरम आवलिका का शेष रहे तब तक पाँच का और बारहवें की चरम आवलिका से तेरहवें गुणस्थान के अन्त तक दो का उदीरणास्थान पाया जाता है।
अल्प- बहुत्व
ग्यारहवें गुणस्थान वाले जीव अन्य प्रत्येक गुणस्थान वाले जीवों से अल्प हैं; क्योंकि वे प्रतिपद्यमान (किसी विवक्षित समय में उस अवस्था को पानेवाले) चौवन और पूर्वप्रतिपन्न (किसी विवक्षित समय के पहिले से उस अवस्था को पाये हुए) एक, दो या तीन आदि पाये जाते हैं। बारहवें गुणस्थानवाले प्रतिपद्यमान उत्कृष्ट एक सौ आठ और पूर्वप्रतिपन्न शत - पृथक्त्व ( दो सौ से नौ सौ तक) पाये जाते हैं, इसलिये ये ग्यारहवें गुणस्थानवालों से संख्यातगुण कहे गये हैं। उपशमश्रेणि के प्रतिपद्यमान जीव उत्कृष्ट चौवन और पूर्वप्रतिपत्र एक, दो, तीन
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