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________________ गुणस्थानाधिकार १२१ आदि तथा क्षपकश्रेणि के प्रतिपद्यमान उत्कृष्ट एक सौ आठ और पूर्वप्रतिपन्न शतपृथक्त्व माने गये हैं। उभय-श्रेणिवाले सभी आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में वर्तमान होते हैं। इसलिये इन तीनों गुणस्थानवाले जीव आपस में समान हैं; किन्तु बारहवें गुणस्थानवालों की अपेक्षा विशेषाधिक हैं।।६२।। जोगिअपमत्तइयरे, संखगुणा देससासणामीसा। अविरय अजोगिमिच्छा, असंख चउरो दुवे णंता।।६३।। योग्यप्रमत्तेतराः, संख्यगुणा देशसासादनमिश्राः। अविरता अयोगिमिथ्यात्वनि असंख्याश्चत्वारो द्वावनन्तौ।।६३।। अर्थ-सयोगिकेवली, अप्रमत्त और प्रमत्तगुणस्थानवाले जीव पूर्व-पूर्व से संख्यातगुण हैं। देशविरति, सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान वाले जीव पूर्व-पूर्व से असंख्यातगुण हैं। अयोगिकेवली और मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान वाले जीव पूर्व-पूर्व से अनन्त गुण हैं।।६३॥ भावार्थ-तेरहवें गुणस्थान आठवें गुणस्थान वालो से संख्यातगुण इसलिये कहे गये हैं कि ये जघन्य दो करोड़ और उत्कृष्ट नौ करोड़ होते हैं। सातवें गुणस्थान वाले दो हजार करोड़ पाये जाते हैं, इसलिये ये सयोगिकेवलियों से संख्यातगुण हैं। छठे गुणस्थान वाले नौ हजार करोड़ तक हो जाते हैं; इसी कारण इन्हें सातवें गुणस्थान वालों से संख्यातगुण माना है। असंख्यात गर्भज-तिर्यञ्च भी देशविरति पा लेते हैं, इसलिये पाँचवें गुणस्थान वाले छठे गुणस्थानवालों से असंख्यातगुण हो जाते हैं। दूसरे गुणस्थान वाले देशविरति वालों से असंख्यातगण कहे गये हैं। इसका कारण यह है कि देशविरति, तिर्यञ्च-मनुष्य दो गति में ही होती है, पर सासादन सम्यक्त्व चारों गति में। सासादन सम्यक्त्व और मिश्रदृष्टि ये दोनों यद्यपि चारों गति में होते हैं; परन्तु सासादन सम्यक्त्व की अपेक्षा मिश्रदृष्टि का काल-मान असंख्यातगुण अधिक है; इस कारण मिश्रदृष्टि वाले सासादन सम्यक्त्वियों की अपेक्षा असंख्यातगुण होते हैं। चौथा गुणस्थान चारों गति में सदा ही पाया जाता है और उसका काल-मान भी बहुत अधिक है, अतएव चौथे गुणस्थान वाले तीसरे गुणस्थान वालों से असंख्यातगुण होते हैं। यद्यपि भवस्य अयोगी, क्षपकश्रेणि वालों के बराबर अर्थात् शत-पृथक्त्वप्रमाण ही हैं तथापि अभवस्य अयोगी (सिद्ध) अनन्त हैं, इसी से अयोगिकेवली जीव चौथे गुणस्थानवालों से अनन्तगुण कहे गये हैं। साधारण वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं और वे सभी मिथ्यादृष्टि हैं; इसी से मिथ्यादृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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