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________________ xxxvi चौथा कर्मग्रन्थ चार विभाग हैं। जो आत्मा अविनिपात, धर्मानियत और सम्बोधिपरायण हो, उसको 'स्रोतापन्न' कहते हैं। स्रोतापन आत्मा सातवें जन्म में अवश्य निर्वाण पाती है। (३) 'सकृदागामी' उसे कहते हैं, जो एक ही बार इस लोक में जन्म ग्रहण करके मोक्ष जानेवाला हो। (४) जो इस लोक में जन्म ग्रहण न करके ब्रह्मलोक से सीधे ही मोक्ष जाने वाला हो, वह 'अनागामी' कहलाता है। (५) जो सम्पूर्ण आस्रवों का क्षय करके कृतकार्य हो जाता है, उसे 'अरहा'' कहते हैं। धर्मानुसारी आदि उक्त पाँच अवस्थाओं का वर्णन मज्झिमनिकाय में बहुत स्पष्ट किया हुआ है। उसमें वर्णन किया है कि तत्काल जात वत्स, कुछ बड़ा किन्तु वत्स, प्रौढ़ वत्स, हल में जोतने लायक बलवान बैल और पूर्ण वृषभ जिस प्रकार उत्तरोत्तर अल्प-अल्प श्रम से गङ्गा नदी के तिरछे प्रवाह को पार कर लेते हैं, वैसे ही धर्मानुसारी आदि उक्त पाँच प्रकार की आत्माएँ भी मार काम के वेग को उत्तरोत्तर अल्प श्रम से जीत सकती हैं। बौद्धशास्त्र में दस संयोजनाएँ-बन्धन वर्णित हैं। इनमें से पाँच 'ओरंभागीय' और पाँच ‘उड्ढ़भागीय' कही जाती हैं। पहली तीन संयोजनाओं का क्षय हो जाने पर सोतापन्न अवस्था प्राप्त होती है। इसके बाद राग, द्वेष और मोह शिथिल होने से सकृदागामी-अवस्था प्राप्त होती है। पाँच ओरंभागीय संयोजनाओं का नाश हो जाने पर औपपत्तिक अनावृत्तिधर्मा किंवा अनागामी अवस्था प्राप्त होती है और दसों संयोजनाओं का नाश हो जाने पर अरहा पद मिलता है। यह वर्णन जैनशास्त्र-गत कर्मप्रकृतियों के क्षय के वर्णन जैसा है। स्रोतापन्न आदि उक्त चार अवस्थाओं का विचार चौथे से लेकर चौदहवें तक के गुणस्थानों के विचारों से मिलता-जुलता है अथवा यों कहिये कि उक्त चार अवस्थाएँ चतुर्थ आदि गुणस्थानों का. संक्षेपमात्र है। जैसे जैनशास्त्र में लब्धि का तथा योगदर्शन में योगविभूति का वर्णन है, वैसे ही बौद्धशास्त्र में भी आध्यात्मिक-विकास-कालीन सिद्धियों का वर्णन है, जिनको उसमें 'अभिज्ञा' कहते हैं। ऐसी अभिज्ञाएँ छह हैं, जिनमें पाँच लौकिक और एक लोकोत्तर कही गयी हैं। १. देखिये, प्रो. राजवाड़े-संपादित मराठीभाषान्तरित दीघनिकाय, पृ. १७६ टिप्पणी। २. देखिये, पृ. १५६। ३. (१) सक्कायदिट्ठि, (२) विचिकच्छा, (३) सीलब्बत परामास, (४) कामराग, (५) पटीघ, (६) रूपराग, (७) अरूपराग, (८) मान, (९) उद्धच्च और (१०) अविज्जा। मराठीभाषान्तरित दीघनिकाय, पृ. १७५ टिप्पणी। ४. देखिये-मराठीभाषान्तरित मज्झिमनिकाय, पृ. १५६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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