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________________ प्रस्तावना XXXV उत्पन्न होनेवाली विकल्प रूप तथा चेष्टा रूप वृत्तियों का निर्मूल नाश करना 'वृत्तिसंक्षय'' है। उपाध्याय श्रीयशोविजयजी ने अपनी पातञ्जलसूत्रवृत्ति में वृत्तिसंक्षय शब्द की उक्त व्याख्या की अपेक्षा अधिक विस्तृत व्याख्या की है। उसमें वृत्ति का अर्थात् कर्मसंयोग की योग्यता का संक्षय-ह्रास, जो ग्रन्थिभेद से शुरू होकर चौदहवें गुणस्थान में समाप्त होता है, उसी को बृत्तिसंक्षय कहा है और शुक्लध्यान के पहले दो भेदों में सम्प्रज्ञात का तथा अन्तिम दो भेदों में असम्प्रज्ञात का समावेश किया है। योगजन्य विभूतियाँ योग से होनेवाली ज्ञान, मनोबल, वचनबल, शरीरबल आदि से सम्बन्धित अनेक विभूतियों का वर्णन पातञ्जल-दर्शन में है। जैनशास्त्र में वैक्रियलब्धि, आहारकलब्धि, अवधिज्ञान, मन:पर्याय ज्ञान आदि सिद्धियाँ वर्णित हैं, ये योग के ही फल हैं। बौद्ध दर्शन में भी आत्मा की संसार, मोक्ष आदि अवस्थाएँ मानी हुई हैं। इसलिये उसमें आध्यात्मिक क्रमिक विकास का वर्णन होना स्वाभाविक है। स्वरूपोन्मुख होने की स्थिति से लेकर स्वरूप की पराकाष्ठा प्राप्त कर लेने तक की स्थिति का वर्णन बौद्ध-ग्रन्थों में है, जो पाँच विभागों में विभाजित है। इनके नाम इस प्रकार हैं-(१) धर्मानुसारी, (२) स्रोतापन, (३) सकृदागामी, (४) अनागामी और (५) अरहा। १. इनमें से 'धर्मानुसारी' या 'श्रद्धानुसारी' वह कहलाता है, जो निर्वाणमार्ग के अर्थात् मोक्षमार्ग के अभिमुख हो, पर उसे प्राप्त न हुआ हो। इसी को जैनशास्त्र में 'मार्गानुसारी' कहा है और उसके पैंतीस गुण बतलाये हैं। (२) मोक्षमार्ग को प्राप्त किये हुए आत्माओं के विकास की न्यूनाधिकता के कारण स्रोतापन्न आदि १. विकल्यस्पन्दरूपाणां, वृत्तीनामन्यजन्मनाम्। अपुनर्भावतो रोध:, प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः।।२५॥' -योगभेदद्वात्रिंशिका। २. 'द्विविधोऽप्ययमध्यात्मभावनाध्यानसमतावृत्तिसंक्षयभेदेन पञ्चधोक्तस्य योगस्य पञ्चमभेदेऽवतरति' इत्यादि। –पाद १, सू. १८। ३. देखिये, तीसरा विभूतिपाद। ४. देखिये, आवश्यकनियुक्ति, गा. ६९ और ७०। ५. देखिये, प्रो.सि. वि. राजवाड़े-सम्पादित मराठीभाषान्तरित मज्झिमनिकाय सू. पे. सू. पे. सू. पे. सू. पे. ६ २ २२ १५ ३४ ४ ४८ १०॥ ६. देखिये, श्रीहेमचन्द्राचार्य-कृत योगशास्त्र, प्रकाश १।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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