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चौथा कर्मग्रन्थ
तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होता है। सम्प्रज्ञातयोग अध्यात्म से लेकर ध्यान पर्यन्त चारों भेदस्वरूप है और असम्प्रज्ञातयोग वृत्तिसंक्षयरूप है। इसलिये चौथे से बारहवें गुणस्थान तक में सम्प्रज्ञातयोग और तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में असम्प्रज्ञातयोग समझना चाहिए। पूर्वसेवा आदि शब्दों की व्याख्या
(१) गुरु, देव आदि पूज्य वर्ग का पूजन, सदाचार, तप और मुक्ति के प्रति अद्वेष, यह 'पूर्वसेवा' कहलाती है। (२) उचित प्रवृत्ति रूप अणुव्रत-महाव्रतयुक्त होकर मैत्री आदि भावनापूर्वक शास्त्रानुसार तत्त्व-चिन्तन करना, 'अध्यात्म'३ है। (३) अध्यात्म का बुद्धिसंगत अधिकाधिक अभ्यास ही 'भावना' ४ है। (४) अन्य विषय के संचार से रहित जो किसी एक विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्मबोध हो, वह 'ध्यान'५ है। (५) अविद्या से कल्पित जो इष्ट-अनिष्ट वस्तुएँ हैं, उनमें विवेकपूर्वक तत्त्व-बुद्धि करना अर्थात् इष्टत्व-अनिष्टत्व की भावना छोड़कर उपेक्षा धारण करना 'समता'६ है। (६) मन और शरीर के संयोग से १. 'शुक्लपक्षेन्दुवत्प्रायो वर्धमानगुणः स्मृतः।
भवाभिनन्ददोषाणामपुनर्बन्धको व्यये।।१।। अस्यैव पूर्वसेवोक्ता मुख्याऽन्यस्योपचारतः। अस्यावस्थान्तरं मार्ग पतिताभिमुखौ पुनः।।२।।' -अपुनर्बन्धकद्वात्रिंशिका। अपुनर्बन्धकस्यायं व्यवहारेण तात्त्विक: अध्यात्मभावनारूपो निश्चयेनोत्तरस्य तु।।१४।। सकृदावर्तनादीनामतात्त्विक उदाहृतः। प्रत्यपायफलप्रायस्तथा वेषादिमात्रतः।।१५॥ शुद्ध्यपेक्षा यथायोगं चारित्रवत एव च।
हन्त ध्यानादिको योग स्तात्त्विकः प्रविजृम्भते।।१६।। -योगविवेकद्वात्रिंशिका। २. संप्रज्ञातोऽवतरति ध्यानभेदेऽत्र तत्त्वतः।
तात्त्विकी च समापत्तिात्मनो भाव्यतां विना।।१५॥ असम्प्रज्ञातनामा तु, संमतो वृत्तिसंक्षयः॥
सर्वतोऽस्मादकरणनियम: पापगोचरः॥२१॥ -योगावतारद्वात्रिंशिका। ३. औचित्याद्वतयुक्तस्य, वचनात्तत्त्वचिन्तनम्।।
मैत्र्यादिभावसंयुक्तमध्यात्म तद्विदो विदुः।।२।। -योगभेदद्वात्रिंशिका। ४. अभ्यासो वृद्धिमानस्य भावना बुद्धिसंगतः।
निवृत्तिरशुभाभ्यासाद्भाववृद्धिश्च तत्फलम्।।९।। -योगभेदद्वात्रिंशिका। ५. उपयोगे विजातीयप्रत्ययाव्यवधानभाक्।
शुभैकप्रत्ययो ध्यानं सूक्ष्माभोगसमन्विम्।।११।। -योगभेदद्वात्रिंशिका। ६. व्यवहारकुदृष्टयोच्चैः रिष्टानिष्टेषु वस्तुषु। कल्पितेषु विवेकेन तत्त्वधी: समतोच्यते।।२२।। -योगभेदद्वात्रिंशिका।
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