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प्रस्तावना
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के अध्यात्म आदि चार भेद किये हैं। वृत्तिसंक्षय के प्रति साक्षात् किंवा परम्परा से कारण होनेवाले व्यापारों को जब योग कहा गया, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि वे पूर्वभावी व्यापार कब से लेने चाहिये। किन्तु इसका उत्तर पहले ही दिया गया है कि चरमपुद्गलपरावर्तकाल से जो व्यापार किये जाते हैं, वे ही योग-कोटि में गिने जाने चाहिये। इसका सबब यह है कि सहकारी निमित्त मिलते ही, वे सब व्यापार मोक्ष के अनुकूल अर्थात् धर्म-व्यापार हो जाते हैं। इसके विपरीत कितने ही सहकारी कारण क्यों न मिलें, पर अचरमपुद्गलपरावर्त्तकालीन व्यापार मोक्ष के अनुकूल नहीं होते। .
योग के उपाय और गुणस्थानों में योगावतार
पातञ्जलदर्शन में (१) अभ्यास और (२) वैराग्य, ये दो उपाय योग के बतलाये हुए हैं। उसमें वैराग्य भी पर-अपर-रूप से दो प्रकार का कहा गया है। योग का कारण होने से वैराग्य को योग मानकर जैनशास्त्र में अपर-वैराग्य को अतात्त्विक धर्मसंन्यास और परवैराग्य को तात्त्विक धर्मसंन्यास योग कहा है। जैनशास्त्र में योग का आरम्भ पूर्वसेवा से माना गया है। पूर्वसेवा से अध्यात्म, अध्यात्म से भावना, भावना से ध्यान तथा समता, ध्यान तथा समता से वृत्तिसंक्षय और वृत्तिसंक्षय से मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिये वृत्तिसंक्षय ही मुख्य योग है और पूर्व सेवा से लेकर क्षमता पर्यन्त सभी धर्म-व्यापार साक्षात् किंवा परम्परा से योग के उपायमात्र हैं। अपुनर्बन्धक, जो मिथ्यात्व को त्यागने के लिये तत्पर
और सम्यक्त्व-प्राप्ति के अभिमुख होता है, उसको पूर्वसेवा तात्त्विकरूप से होती है और सकृद्वन्धक, द्विर्बन्धक आदि को पूर्वसेवा अतात्त्विक होती है। अध्यात्म
और भावना अपुनर्बन्धक तथा सम्यग्दृष्टि को व्यवहारनय से तात्त्विक और देशविरति तथा सर्व-विरति को निश्चयनय से तात्त्विक होता है। अप्रमत्त, सर्वविरति आदि गुणस्थानों में ध्यान तथा समता उत्तरोत्तर तात्त्विक रूप से होते हैं। वृत्तिसंक्षय १. देखिये, पाद, १, सूत्र १२, १५ और १६। २. विषयदोषदर्शनजनितमायात् धर्मसंन्यासलक्षणं प्रथमम्, स तत्त्वचिन्तया विषयौदासीन्येन
जनितं द्वितीयापूर्वकरणभावितात्त्विकधर्मसंन्यासलक्षणं द्वितयं वैराग्यं, यत्र क्षायोपशमिका धर्मा अपि क्षीयन्ते क्षायिकाश्चोत्पद्यन्त इत्यस्माकं सिद्धान्त:।'
-श्रीयशोविजयजी-कृत पातञ्जल-दर्शनवृत्ति, पाद १०, सूत्र १६। ३. पूर्वसेवा तु योगस्य, गुरुदेवादिपूजनम्।
सदाचारस्तपो मुक्त्यद्वेषश्चेति प्रकीर्तिताः।।१।। (पूर्वसेवाद्वात्रिंशिका) ४. उपायत्वेऽत्र पूर्वेषामन्त्य एवावशिष्यते।
तत्पश्चमगुणस्थानादुपायोऽर्वागिति स्थितिः।।३१॥ (योगभेदद्वात्रिंशिका)
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