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चौथा कर्मग्रन्थ भावार्थ-चौदह में से अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म-एकेन्द्रिय तथा अपर्याप्त और पर्याप्त बादर-एकेन्द्रिय, इन चार के अतिरिक्त शेष दस जीवस्थान त्रसकाय में हैं, क्योंकि उन दस में ही त्रसनामकर्म का उदय होता है और इससे वे स्वतन्त्रतापूर्वक चल-फिर सकते हैं।
____ अविरति आदि उपर्युक्तं अठारह मार्गणाओं में सभी जीवस्थान, इसलिये माने जाते हैं कि सब प्रकार के जीवों में इन मार्गणाओं का सम्भव है।
__ मिथ्यात्व में सब जीवस्थान कहे हैं। अर्थात् सब जीवस्थानों में सामान्यतः मिथ्यात्व कहा है; किन्तु पहले बारह जीवस्थानों में अनाभोग मिथ्यात्व समझना चाहिये; क्योंकि उनमें अनाभोग-जन्य (अज्ञान-जन्य) अतत्त्व-रुचि है। पञ्चसंग्रह में 'अनभिग्रहिक-मिथ्यात्व' उन जीवस्थानों में लिखा है, सो अन्य अपेक्षा से। अर्थात् देव-गुरु-धर्म-का स्वीकार न होने के कारण उन जीवस्थानों का मिथ्यात्व 'अनभिग्रहिक' भी कहा जा सकता है।।१६।। पजसनी
केवलद्ग,-संजयमणनाणदेसमणमीसे। पण चरमपज्ज वयणे, तिय छ व पज्जियर चक्खूमि।।१७।। पर्याप्तसंज्ञी
केवलद्विक-संयतमनोज्ञानदेशमनोमिश्रे। पञ्च चरमपर्याप्तानि वचने, त्रीणि षड् वा पर्याप्तेतराणि चक्षुषि।।१७।।
अर्थ-केवल-द्विक (केवलज्ञान-केवलदर्शन) सामायिक आदि पाँच संयम, मन:पर्यायज्ञान, देशविरति, मनोयोग और मिश्रसम्यक्त्व, इन ग्यारह मार्गणाओं में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान है। वचनयोग में अन्तिम पाँच (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय और संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय) पर्याप्त जीवस्थान हैं। चक्षुर्दर्शन में पर्याप्त तीन (चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय और संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय) जीवस्थान हैं या मतान्तर से पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के उक्त तीन अर्थात् कुल छह जीवस्थान हैं।।१७।।
भावार्थ-केवल-द्विक आदि उपर्युक्त ग्यारह मार्गणाओं में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान माना जाता है। इसका कारण यह है कि पर्याप्त संज्ञी के अतिरिक्त अन्य प्रकार के जीवों में न सर्वविरति का और न देशविरति का संभव है। अतएव संज्ञि-भिन्न जीवों में केवल-द्विक, पाँच संयम, देशविरति और मन:पर्यायज्ञान, जिनका सम्बन्ध विरति से है, वे हो ही नहीं सकते। इसी तरह पर्याप्त संज्ञी
१. देखिये, परिशिष्ट 'ट'।
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