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मार्गणास्थान-अधिकार तेजोलेश्या पर्याप्त तथा अपर्याप्त, दोनों प्रकार के संज्ञियों में पायी जाती है तथा वह बादर एकेन्द्रिय में भी अपर्याप्त-अवस्था में होती है, इसी से उस लेश्या में उपर्युक्त तीन जीवस्थान माने हुए हैं। बादर एकेन्द्रिय को अपर्याप्तअवस्था में तेजोलेश्या मानी जाती है, सो इस अपेक्षा से कि भवनपति, व्यन्तर? आदि देव, जिनमें तेजोलेश्या का सम्भव है वे जब तेजोलेश्यासहित मरकर पृथिवी, पानी या वनस्पति में जन्म ग्रहण करते हैं, तब उनको अपर्याप्त (करणअपर्याप्त) अवस्था में कुछ काल तक तेजोलेश्या रहती है।
पहले चार जीवस्थान के अतिरिक्त अन्य किसी जीवस्थान में एकेन्द्रिय तथा स्थावरकायिक जीव नहीं हैं। इसी से एकेन्द्रिय और पाँच स्थावर काय, इन छ: मार्गणाओं में पहले चार जीवस्थान माने गये हैं।
चौदह जीवस्थानों में से दो ही जीवस्थान संज्ञी हैं। इसी कारण असंज्ञीमार्गणा में बारह जीवस्थान समझना चाहिये।
प्रत्येक विकलेन्द्रिय में अपर्याप्त तथा पर्याप्त दो-दो जीवस्थान पाये जाते हैं, इसी से विकलेन्द्रिय मार्गणा में दो-ही-दो जीवस्थान माने गये हैं।।१५।।
दस चरम तसे अजया,-हारगतिरितणुकसायदुअनाणे। पढमतिलेसाभवियर,-अचक्खुनपुमिच्छि सव्वे वि।।१६।। दश चरमाणि सेऽयताहारकतिर्यक्तनुकषायव्यज्ञाने। प्रथमत्रिलेश्याभव्येतराऽचक्षुर्नपुंमिथ्यात्वे सर्वाण्यपि।।१६।।
अर्थ-त्रसकाय में अन्तिम दस जीवस्थान हैं अविरति, आहारक, तिर्यञ्चगति, काययोग, चार कषाय, मति-श्रुत दो अज्ञान, कृष्ण आदि पहली तीन लेश्याएँ, भव्यत्व, अभव्यत्व, अचक्षुर्दर्शन, नपुंसकवेद और मिथ्यात्व, इन अठारह मार्गणाओं में सभी (चौदह) जीवस्थान पाये जाते हैं।।१६।।
१. "किण्हा नीला काऊ, तेऊलेसा य भवणवंतरिया। जोइससोहम्मीसा,-ण तेऊलेसा मुणेयव्या।।१९३।।' -बृहत्संग्रहणी।
अर्थात् 'भवनपति और व्यन्तर में कृष्ण आदि चार लेश्याएँ होती हैं; किन्तु ज्योतिष और सौधर्म-ईशान देवलोक में तेजोलेश्या ही होती है।' २. 'पुढवी आउवणस्सइ, गम्भे पज्जत्त संखजीवेसु।। सग्गचुयाणं वासो, सेसा पडिसेहिया ठाणा।।' -विशेषावश्यकभाष्य।
अर्थात् 'पृथ्वी, जल, वनस्पति और संख्यात-वर्ष-आयुवाले गर्भज-पर्याप्त, इन स्थानों ही में स्वर्ग-च्युत देव पैदा होते हैं, अन्य स्थानों में नहीं।'
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