________________
५२
चौथा कर्मग्रन्थ
अर्थ-मनुष्यगति में पूर्वोक्त संज्ञि-द्विक (अपर्याप्त तथा पर्याप्त संज्ञी) और अपर्याप्त असंज्ञी, ये तीन जीवस्थान हैं। तेजोलेश्या में बादर अपर्याप्त और संज्ञिद्विक, ये तीन जीवस्थान हैं। पाँच स्थावर और एकेन्द्रिय में पहले चार (अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्ष्म, अपर्याप्त बादर और पर्याप्त बादर) जीवस्थान हैं। असंज्ञिमार्गणा में संज्ञि-द्विक के अतिरिक्त पहले बारह जीवस्थान हैं। विकलेन्द्रिय में दो-दो (अपर्याप्त तथा पर्याप्त) जीवस्थान हैं।।१५।।
भावार्थ-मनुष्य दो प्रकार के हैं-गर्भज और सम्मूछिम। गर्भज सभी संज्ञी ही होते हैं, वे अपर्याप्त तथा पर्याप्त दोनों प्रकार के पाये जाते हैं। पर. संमूछिम मनुष्य, जो ढाई द्वीप-समुद्र में गर्भज मनुष्य के मल-मूत्र, शुक्र-शोणित आदि में पैदा होते हैं, उनकी आयु अन्तर्मुहूर्त्त-प्रमाण ही होती है। वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, इसी से उन्हें लब्धि-अपर्याप्त ही मानना है, तथा वे असंज्ञी ही माने गये हैं। इसलिए सामान्य मनुष्यगति में उपर्युक्त तीन ही जीवस्थान पाये जाते हैं।
'उवसमसेढिं पत्ता, मरंति उवसमगुणेसु जे सत्ता। ते लवसत्तम देवा, सव्वढे खयसमत्तजुआ।।' ।
इसका मतलब यह है कि 'जो जीव उपशमश्रेणि को ग्यारहवें गुणस्थान में मरते हैं, लवसप्तम कहलाने का सबब यह है कि सात लव-प्रमाण आयु कम होने से उनको देव का जन्म ग्रहण करना पड़ता है। यदि उनकी आयु और भी अधिक होती तो
देव हुए विना उसी जन्म में मोक्ष होता। १. जैसे, भगवान् श्यामाचार्य प्रज्ञापना पृ. ५०/१ में वर्णन करते हैं
'कहिणं भन्ते संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति? गोयमा! अंतो मणुस्सखेतस्स पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पनाए अन्तरदीवेसु गब्भवक्कंतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा सुक्केसु वा सोणिएसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोगेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइठाणसु इच्छणं संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति अंगुलस्स असंखभागमित्ताए ओगाहणाए असन्नी मिच्छदिट्ठी अन्नाणी सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्ता अंतमुहुत्ताउया चेव कालं करंति ति।'
इसका सार संक्षेप में इस प्रकार है-'प्रश्न करने पर भगवान् महावीर गणधर गौतम से कहते हैं कि पैंतालीस लाख योजन-प्रमाण मनुष्य-क्षेत्र के भीतर ढाई द्वीपसमुद्र में पन्द्रह कर्मभूमि, तीस अकर्मभूमि और छप्पन अन्तद्वीपों में गर्भज-मनुष्यों के मल, मूत्र, कफ आदि सभी अशुचि-पदार्थों में संमूछिम पैदा होते हैं, जिनका देहपरिमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर हैं, जो असंयती, मिथ्यात्वी तथा अज्ञानी होते हैं और जो अपर्याप्त ही हैं तथा अन्तर्मुहूर्त्तमात्र में मर जाते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org