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________________ मार्गणास्थान- अधिकार ५१ संज्ञिमार्गणा में दो संज्ञि - जीवस्थान के अतिरिक्त अन्य किसी जीवस्थान का सम्भव नहीं है; क्योंकि अन्य सब जीवस्थान असंज्ञी ही हैं। देवगति आदि उपर्युक्त मार्गणाओं में अपर्याप्त संज्ञी का मतलब करणअपर्याप्त से है, लब्धि - अपर्याप्त से नहीं। इसका कारण यह है कि देवगति और नरकगति में लब्धि- अपर्याप्त रूप से कोई जीव पैदा नहीं होते और न लब्धिअपर्याप्त को, मति आदि ज्ञान, पद्म आदि लेश्या तथा सम्यक्त्व होता है || १४ || - सबायर अपज्ज तमसंनिअपज्जजुयं, नरे तेऊए । थावर इगिंदि पढमा, - चउ बार असन्नि दु दुबगले । । १५ ।। तदसंज्ञ्यपर्याप्तयुतं, नरे सबादरापर्याप्तं तेजसि । स्थावर एकेन्द्रिये प्रथमानि चत्वारि द्वादशासंज्ञिनि द्वे द्वे विकले । । १५ । । पहल होता है। दूसरा वह, जो उपशमश्रेणि के समय होता है। इसमें पहले प्रकार के सम्यक्त्व के सहित तो जीव मरता ही नहीं। इसका प्रमाण आगम में इस प्रकार है'अणबंधोद्यमाउग, - बंधं कालं च सासणो कुणई। उवसमसम्मद्दिट्ठी, चउण्हमिक्कं पि नो कुणई । । ' अर्थात् 'अनन्तानुबन्धी का बन्ध, उसका उदय, आयु का बन्ध और मरण, ये चार कार्य दूसरे गुणस्थान में होते हैं, पर इनमें से एक भी कार्य औपशमिक सम्यक्त्व में नहीं होता।' दूसरे प्रकार के औपशमिक सम्यक्त्व के विषय में यह नियम है कि उसमें वर्तमान जीव मरता तो है, पर जन्म ग्रहण करते ही सम्यक्त्वमोहनीय का उदय होने से वह औपशमिक सम्यक्त्वी न रह कर क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी बन जाता है। यह बात शतक (पाँचवें कर्मग्रन्थ) की बृहत्चूर्णी में लिखी है 'जो उवसमसम्मद्दिट्ठी उवसमसेढीए कालं करेइ सो पढमसमयें चेव सम्मत्तपुंजं उदयावलियाए, छोढूण सम्मत्तपुग्गले वेएइ, तेण न उवसमसम्मद्दिट्ठी अपज्जत्तगो लब्भइ । ' अर्थात् 'जो उपशमसम्यग्दृष्टि, उपशमश्रेणि में मरता है, वह मरण के प्रथम समय में ही सम्यक्त्वमोहनीय-पुञ्ज को उदयावलिका में लाकर उसे वेदता है, इससे अपर्याप्तअवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाया नहीं जा सकता।' इस प्रकार अपर्याप्त अवस्था में किसी तरह के औपशमिक सम्यक्त्व का सम्भव न होने से उन आचार्यों के मत से सम्यक्त्व में केवल पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान ही माना जाता है। इस प्रसङ्ग में श्रीजीवविजयजी ने अपने टब्बे में ग्रन्थ के नाम का उल्लेख किये बिना ही उसकी गाथा को उद्धृत करके लिखा है कि औपशमिक सम्यक्त्वी ग्यारहवें गुणस्थान से गिरता है सही; पर उसमें मरता नहीं। मरनेवाला क्षायिकसम्यक्त्वी ही होता है। गाथा इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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