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चौथा कर्मग्रन्थ
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि - द्विक, औपशमिक आदि उक्त तीन सम्यक्त्व और पद्म - शुक्ल - लेश्या, इन नौ मार्गणाओं में दो संज्ञी जीवस्थान माने गये हैं। इसका कारण यह है कि किसी असंज्ञी में सम्यक्त्व का सम्भव नहीं है और सम्यक्त्व के अतिरिक्त मति श्रुत - ज्ञान आदि का होना ही असम्भव है। इस प्रकार संज्ञी के अतिरिक्त दूसरे जीवों में पद्म या शुक्ल- लेश्या के योग्य परिणाम नहीं हो सकते। अपर्याप्त-अवस्था में मति - श्रुत - ज्ञान और अवधि-द्विक इसलिये माने जाते हैं कि कोई-कोई जीव तीन ज्ञानसहित जन्म ग्रहण करते हैं। जो जीव, आयु बाँधने के बाद क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है, वह बँधी हुई आयु के अनुसार चार गतियों में से किसी भी गति में जाता है। इसी अपेक्षा से अपर्याप्तअवस्था में क्षायिक सम्यक्त्व माना जाता है। उस अवस्था में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मानने का कारण यह है कि भावी तीर्थङ्कर आदि, देव जब गति से निकल कर मनुष्य जन्म ग्रहण करते हैं, तब वे क्षायोपशमिक सम्यक्त्वसहित होते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व के विषय में यह जानना चाहिये कि आयु के पूरे हो जाने से जब कोई औपशमिक सम्यक्त्वी ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर अनुत्तरविमान में पैदा होता है तब अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है।
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भी अपर्याप्त अवस्था में विभङ्गज्ञान नहीं होता। इस अपेक्षा से विभङ्गज्ञान में एक (पर्याप्त संज्ञिरूप) जीवस्थान कहा गया है। सामान्य दृष्टि से उसमें दो जीवस्थान ही समझने चाहिये। क्योंकि जो संज्ञी जीव, मरकर देव या नारकरूप से पैदा होते हैं, उन्हें पर्याप्त अवस्था में भी विभङ्गज्ञान होता है।
१.
वह मन्तव्य ‘सप्ततिका' नामक छठे कर्मग्रन्थ की चूर्णी और पञ्चसंग्रह के मतानुसार समझना चाहिये। चूर्णी में अपर्याप्त अवस्था के समय नारकों में क्षायोपशमिक और क्षायिक, ये दो; पर देवों में औपशमिक सहित तीन सम्यक्त्व माने हैं। पञ्चसंग्रह में भी द्वार १ गा. २५वीं तथा उसकी टीका में उक्त चूर्णी के मत की ही पुष्टि की गई है । गोम्मटसार भी इसी मत के पक्ष में है; क्योंकि वह द्वितीय-उपशमश्रेणि-भावीउपशमसम्यक्त्व को अपर्याप्त अवस्था के जीवों को मानता है। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की, गा. ७२९ ।
परन्तु कोई आचार्य यह मानते हैं कि 'अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता। इससे उसमें केवल पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान मानना चाहिये।' इस मत के समर्थन में वे कहते हैं कि 'अपर्याप्त अवस्था में योग्य (विशुद्ध) अध्यवसाय न होने से औपशमिक सम्यक्त्व नया तो उत्पन्न ही नहीं हो सकता। रहा पूर्व-भव में प्राप्त किया हुआ, सो उसका भी अपर्याप्त अवस्था तक रहना शास्त्र सम्मत नहीं है; क्योंकि औपशमिक सम्यक्त्व दो प्रकार का है। एक तो वह, जो अनादि मिथ्यात्वी को पहले
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