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________________ मार्गणास्थान - अधिकार (१) मार्गणाओं में जीवस्थान' । (पाँच गाथाओं से) ४९ आहारेयर भेया, सुरनरयविभंगमइसुओहिदुगे । सम्मत्ततिगं पम्हा, - सुक्कासन्नीसु सन्निदुगं । । १४ । । भेदास्सुरनरकविभङ्गमतिश्रुतावधिद्विके । आहारेतरौ सम्यक्त्वत्रिके पद्माशुक्लासंज्ञिषु संज्ञिद्विकम् । । १४ । । अर्थ- आहारक मार्गणा के आहारक और अनाहारक, ये दो भेद हैं। देवगति, नरकगति, विभङ्गज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, तीन सम्यक्त्व (औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक), दो लेश्याएँ (पद्मा और शुक्ला) और संज्ञित्व, इन तेरह मार्गणाओं में अपर्याप्त संज्ञी और पर्याप्त संज्ञी, ये दो जीवस्थान होते हैं || १४ || (१४) आहारक मार्गणा के भेदों का स्वरूप भावार्थ - ( १ ) जो जीव, ओज, लोम और कवल, इनमें से किसी भी प्रकार के आहार को करता है, वह 'आहारक' है। (२) उक्त तीन तरह के आहार में से किसी भी प्रकार के आहार को जो जीव ग्रहण नहीं करता है, वह 'अनाहारक' है। देवगति और नरकगति में वर्तमान कोई भी जीव, असंज्ञी नहीं होता। चाहे अपर्याप्त हो या पर्याप्त, पर होते हैं सभी संज्ञी ही। इसी से इन दो गतियों में दो ही जीवस्थान माने गये हैं। विभङ्गज्ञान को पाने की योग्यता किसी असंज्ञी में नहीं होती। अतः उसमें भी अपर्याप्त - पर्याप्त संज्ञी, ये दो ही जीवस्थान माने गये हैं । २ Jain Education International १. यह विषय पञ्चसंग्रह गाथा २२ से २७ तक में है। २. यद्यपि पञ्चसंग्रह द्वार १ गाथा २७वीं में यह उल्लेख है कि विभङ्गज्ञान में संज्ञि-पर्याप्त एक ही जीवस्थान है, तथापि उसके साथ इस कर्मग्रन्थ का कोई विरोध नहीं; क्योंकि मूल पद्यसंग्रह में विभङ्गज्ञान में एक ही जीवस्थान कहा है, सो अपेक्षा - विशेष से। अतः अन्य अपेक्षा से विभङ्गज्ञान में दो जीवस्थान भी उसे इष्ट हैं। इस बात का खुलासा श्रीमलयगिरिसूरि ने उक्त २७वीं गाथा की टीका में स्पष्ट कर दिया है। वे लिखते हैं कि ‘संज्ञि-पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य को अपर्याप्त अवस्था में विभङ्गज्ञान उत्पन्न नहीं होता । तथा जो असंज्ञी जीव मरकर रत्नप्रभा नरक में नारक का जन्म लेते है, उन्हें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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