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चौथा कर्मग्रन्थ
(६) 'मिथ्यात्व' वह परिणाम है, जो मिथ्यामोहनीय कर्म के उदय से होता है, जिसके होने से जीव, जड़-चेतन का भेद नहीं जान पाता; इसी से आत्मोन्मुख प्रवृत्ति वाला भी नहीं हो सकता है। हठ, कदाग्रह आदि दोष इसी के फल हैं।
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(१३) संज्ञी' मार्गणा के भेदों का स्वरूप
(१) विशिष्ट मन: शक्ति अर्थात् दीर्घकालिकी संज्ञा का होना 'संज्ञित्व' है। (२) उक्त संज्ञा का न होना 'असंज्ञित्व' है ॥ १३ ॥
९. यद्यपि प्राणीमात्र को किसी न किसी प्रकार की संज्ञा होती ही है; क्योंकि उसके बिना जीवत्व ही असम्भव है, तथापि शास्त्र में जो संज्ञी - असंज्ञी का भेद किया गया है, सो दीर्घकालिकी संज्ञा के आधार पर। इसके लिये देखिये, परिशिष्ट 'ग'।
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