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मार्गणास्थान-अधिकार
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(क) 'ग्रन्थि-भेद-जन्य' औपशमिक सम्यक्त्व' अनादि-मिथ्यात्वी भव्यों को होता है। इसके प्राप्त होने की प्रक्रिया का विचार दूसरे कर्मग्रन्थ कीरी गाथा के भावार्थ में लिखा गया है। इसको 'प्रथमोपशम सम्यक्त्व' भी कहा है।
(ख) 'उपशमश्रेणि-भावी औपशमिक सम्यक्त्व' की प्राप्ति चौथे, पाँचवें, छठे या सातवें से किसी भी गुणस्थान में हो सकती है; परन्तु आठवें गुणस्थान में तो उसकी प्राप्ति अवश्य ही होती है।
औपशमिक सम्यक्त्व के समय आयुबन्ध, मरण, अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध तथा अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय, ये चार बातें नहीं होती। पर उससे च्युत होने के बाद सास्वादन-भाव के समय उक्त चारों बातें हो सकती हैं।
(२) अनन्तानुबन्धीय और दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से प्रकट होनेवाला तत्त्व-रुचि रूप परिणाम, 'क्षायोपशमिकसम्यक्त्व' है।
(३) जो तत्त्व-रुचि रूप परिणाम, अनन्तानुबन्धी-चतुष्क और दर्शनमोहनीय-त्रिक के क्षय से प्रकट होता है, वह 'क्षायिक सम्यक्त्व' है।
यह क्षायिक सम्यक्त्व, जिन-कालिक' मनुष्यों को होता है। जो जीव, आयुबन्ध करने के बाद इसे प्राप्त करते हैं, वे तीसरे या चौथे भव में मोक्ष पाते हैं; परन्तु अगले भव की आयु बाँधने के पहले जिनको यह सम्यक्त्व प्राप्त होता है, वे वर्तमान भव में ही मुक्त होते हैं।
(४) औपशमिक सम्यक्त्व का त्याग कर मिथ्यात्व के अभिमुख होने के समय, जीव का जो परिणाम होता है, उसी को ‘सासादन सम्यक्त्व' कहते हैं। इसकी स्थिति, जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट छ: आवलिकाओं की होती है। इसके समय, अनन्तानुबन्धी कषायों का उदय रहने के कारण, जीव के परिणाम निर्मल नहीं होते। सासादन में अतत्त्व-रुचि, अव्यक्त होती है और मिथ्यात्व में व्यक्त, यही दोनों में अन्तर है।
(५) तत्त्व और अतत्त्व, इन दोनों की रुचि रूप मिश्र परिणाम जो सम्यग्मिथ्यामोहनीयकर्म के उदय से होता है, वह मिश्रसम्यक्त्व (सम्यग्मिथ्यात्व)' है। १. यह मत, श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों को एक-सा इष्ट है। 'दंसणखवणस्सरिहो, जिणकालीयो पुमट्ठवासुवरि' इत्यादि।
-पञ्चसंग्रह पृ. १२६५। 'दसणमोहक्खवणा,-पद्धवगो कम्मभूमिजो मणुसो। तित्थयरपायमूले, केवलिसुदकेवलीमूले।।११०।।' -लब्धिसार।
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