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चौथा कर्मग्रन्थ लोगों का हित करने की इच्छा होती है, वह परिणाम 'तेजोलेश्या' है।
(५) हल्दी के समान पीले रंग के लेश्या-पुद्गलों से एक तरह का परिणाम आत्मा में होता है, जिससे क्रोध, मान आदि कषाय बहुत अंशों में मन्द हो जाते हैं; चित् प्रशान्त हो जाता है आत्म-संयम किया जा सकता है; मित-भाषिता और जितेन्द्रियता आ जाती है, वह परिणाम ‘पद्मलेश्या' है।
(६) 'शुक्ललेश्या', उस परिणाम को समझना चाहिये, जिससे कि आर्त्तरौद्र-ध्यान बन्द होकर धर्म तथा शुक्ल-ध्यान होने लगता है; मन, वचन और शरीर को नियमित बनाने में रुकावट नहीं आती; कषाय की उपशान्ति होती है और वीतराग-भाव सम्पादन करने की भी अनुकूलता हो जाती है। ऐसा परिणाम शङ्ख के समान श्वेत वर्ण के लेश्याजातीय-पुद्गलों के सम्बन्ध से होता है।
(११) भव्यत्वमार्गणा के भेदों का स्वरूप (१) 'भव्य' वे हैं, जो अनादि तादृश-पारिणामिक-भाव के कारण मोक्ष को पाते हैं या पाने की योग्यता रखते हैं।
(२) जो अनादि तथाविध परिणाम के कारण किसी समय मोक्ष पाने की योग्यता ही नहीं रखते, वे 'अभव्य' हैं।
(१२) सम्यक्त्व मार्गणा के भेदों का स्वरूप
(१) चार अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शनमोहनीय के उपशम से प्रकट होनेवाला तत्त्व-रुचि रूप आत्म-परिणाम, 'औपशमिकसम्यक्त्व' है। इसके (क) 'ग्रन्थि-भेद-जन्य' और (ख) 'उपशमश्रेणि-भावी', ये दो भेद हैं।
१. अनेक भव्य ऐसे हैं कि जो मोक्ष की योग्यता रखते हुए भी उसे नहीं पाते; क्योंकि
उन्हें वैसी अनुकूल सामग्री ही नहीं मिलती, जिससे कि मोक्ष प्राप्त हो। इसलिये उन्हें 'जाति भव्य' कहते हैं। ऐसी भी मिट्टी है कि जिसमें सुवर्ण के अंश तो हैं, पर अनुकूल साधन के अभाव से वे न तो अब तक प्रकट हुए और न आगे ही प्रकट होने की सम्भावना है; तो भी उस मिट्टी को योग्यता की अपेक्षा से जिस प्रकार 'सुवर्ण-मृत्तिका' (सोने की मिट्टी) कह सकते हैं, वैसे ही मोक्ष की योग्यता होते हुए भी उसके विशिष्ट साधन न मिलने से, मोक्ष को कभी न पा सकनेवाले जीवों को 'जातिभव्य' कहना विरुद्ध नहीं। इसका विचार प्रज्ञापना के १८वें पद की टीका में, उपाध्यायसमयसुन्दरगणि-कृत विशेषशंतक में तथा भगवती के १२वें शतक के २रे 'जयन्ती'
नामक अधिकार में है। २. देखिये, परिशिष्ट ‘झ।
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