________________
मार्गणास्थान-अधिकार
४५
जाता है। अनाकार-उपयोग को न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनों में 'निर्विकल्प अव्यवसायात्मक ज्ञान' कहते हैं।।१२।।
(१०) लेश्या के भेदों का स्वरूप किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुक्क भव्वियरा। वेयगखइगुवसममि,-च्छमीससासाण संनियरे।।१३।।
कृष्णा नीला कापोता, तेजः पद्मा च शुक्ला भव्येतरौ।
वदकक्षायिकोपशममिथ्यामिश्रसासादनान संज्ञीतरौ।।१३।।
अर्थ-कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल, ये छह लेश्यायें हैं, भव्यत्व, अभव्यत्व, ये दो भेद भव्यमार्गणा के हैं। वेदक (क्षायोपशमिक), क्षायिक, औपशमिक, मिथ्यात्व, मिश्र और सासादन, ये छह भेद सम्यक्त्वमार्गणा के हैं। संज्ञित्व, असंज्ञित्व, ये दो भेद संज्ञिमार्गणा के हैं।।१३।।
भावार्थ-(१) काजल के समान कृष्ण वर्ण के लेश्या-जातीय पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में ऐसा परिणाम होता है, जिससे हिंसा आदि पाँच आस्रवों में प्रवृत्ति होती है; मन, वचन तथा शरीर का संयम नहीं रहता, स्वभाव क्षुद्र बन जाता है; गुण-दोष की परीक्षा किये बिना ही कार्य करने की आदत-सी हो जाती है और क्रूरता आ जाती है, वह परिणाम 'कृष्णलेश्या' है। ___(२) अशोक वृक्ष के समान नीले रंग के लेश्या-पुद्गलों से ऐसा परिणाम आत्मा में उत्पन्न होता है कि जिससे ईर्ष्या, असहिष्णुता तथा माया-कपट होने लगते हैं, निर्लज्जता आ जाती है, विषयों की लालसा प्रदीप्त हो उठती है; रस-लोलुपता होती है और सदा पौलिक सुख की खोज की जाती है, वह परिणाम 'नीललेश्या' है।
(३) कबूतर के गले के समान रक्त तथा कृष्ण वर्ण के पुद्गलों से इस प्रकार का परिणाम आत्मा में उत्पन्न होता है, जिससे बोलने, काम करने और विचारने में सब-कहीं वक्रता ही वक्रता होती है; किसी विषय में सरलता नहीं होती; नास्तिकता आती है और दूसरों को कष्ट हो, ऐसा भाषण करने की प्रवृत्ति होती है, वह परिणाम ‘कापोतलेश्या' है।
(४) तोते की चौंच के समान रक्त वर्ण के लेश्या-पुदगलों से आत्मा में एक प्रकार का परिणाम होता है, जिससे कि नम्रता आ जाती है, शठता दूर हो जाती है, चपलता रुक जाती है; धर्म में रुचि तथा दृढ़ता होती है और सब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org