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________________ ४४ चौथा कर्मग्रन्थ (७) किसी प्रकार के संयम का स्वीकार न करना ‘अविरति' है। यह पहले से चौथे तक चार गुणस्थानों में पायी जाती है। (९) दर्शनमार्गणा के चार' भेदों का स्वरूप (१) चक्षु (नेत्र) इन्द्रिय के द्वारा जो सामान्य बोध होता है, वह 'चक्षुर्दर्शन' है। (२) चक्षु को छोड़ अन्य इन्द्रिय के द्वारा तथा मन के द्वारा जो सामान्य बोध होता है, वह 'अचक्षुर्दर्शन' है। (३) अवधिलब्धि वालों को इन्द्रियों की सहायता के बिना ही रूपी द्रव्यविषयक जो सामान्य बोध होता है, वह 'अवधिदर्शन' है। (४) सम्पूर्ण द्रव्य-पर्यायों को सामान्य रूप से विषय करने वाला बोध 'केवलदर्शन' है। दर्शन को अनाकार-उपयोग इसलिये कहते हैं कि इसके द्वारा वस्तु के सामान्य-विशेष, उभय रूपों में से सामान्य रूप (सामान्य आकार) मुख्यतया जाना दया का परिमाण बहुत-कम कहा गया है। यदि मुनियों की दया को बीस अंश मान लें तो श्रावकों की दया को सवा अंश कहना चाहिये। इसी बात को जैनशास्त्रीय परिभाषा में कहा है कि 'साधुओं की दया बीस बिस्वा और श्रावकों की दया सवा बिस्वा है। इसका कारण यह है कि श्रावक, त्रस जीवों की हिंसा को छोड़ सकते हैं, बादर जीवों की हिंसा को नहीं। इससे मुनियों की बीस बिस्वा दया की अपेक्षा आधा परिमाण रह जाता है। इसमें भी श्रावक, त्रस की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग कर सकते हैं, आरम्भ-अन्य हिंसा को नहीं। अतएव उस आधे परिमाण में से भी आधा हिस्सा निकल जाने पर पाँच बिस्वा दया बचती है। इरादा-पूर्वक हिंसा भी उन्हीं वसों की त्याग की जा सकती है, जो निरपराध हैं। सापराध त्रसों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकते, इससे ढाई बिस्वा दया रहती है। इसमें से भी आधा अंश निकल जाता है; क्योंकि निरपराध त्रसों की भी सापेक्ष हिंसा श्रावकों के द्वारा हो ही जाती है, वे उनकी निरपेक्ष हिंसा नहीं करते। इसी से श्रावकों की दया का परिमाण सवा बिस्सा माना है। इस भाव को जानने के लिये एक प्राचीन गाथा इस प्रकार है 'जीवा सहुमा थूला, संकप्पा आरंभा भवे दुविहा। सावराह निरवराहा, सविक्खा चेव निरविक्खा।।' इसके विशेष खुलासे के लिये देखिये, जैनतत्त्वादर्श का परिच्छेद १८ वाँ। १. यद्यपि सब जगह दर्शन के चार भेद ही प्रसिद्ध हैं और इसी से मन: पर्यायदर्शन नहीं माना जाता है। तथापि कहीं-कहीं मन:पर्यायदर्शन को भी स्वीकार किया है। इसका उल्लेख, तत्त्वार्थ-अ. १, सू. २४ की टीका में है'केचित्तु मन्यन्ते प्रज्ञापनायां मनःपर्यायज्ञाने दर्शनता पठ्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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