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मार्गणास्थान - अधिकार
प्रकार तीसरे छह महीने पूर्ण होने के बाद अठारह मास की यह 'परिहारविशुद्धि' नामक तपस्या समाप्त होती है। इसके बाद वे जिनकल्प ग्रहण करते हैं अथवा वे पहले जिस गच्छ के रहे हों, उसी में दाखिल होते हैं या फिर भी वैसी ही तपस्या शुरू करते हैं। परिहारविशुद्धसंयम के 'निर्विशमानक' और 'निर्विष्टकायिक', ये दो भेद हैं। वर्तमान परिहार विशुद्ध को 'निर्विशमानक' और भूत परिहारविशुद्ध को 'निर्विष्टकायिक' कहते हैं।
(४) जिस संसार में सम्पराय (कषाय) का उदय सूक्ष्म (अति स्वल्प) रहता है, वह 'सूक्ष्मसम्परायसंयम' है। इसमें लोभ कषाय उदयमान होता है, अन्य नहीं । यह संयम दसवें गुणस्थान वालों को होता है। इसके (क) 'संक्लिश्यमानक' और (ख) 'विशुद्धयमानक', ये दो भेद हैं।
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(क) उपशमश्रेणि से गिरनेवालों को दसवें गुणस्थान की प्राप्ति के समय जो संयम होता है, वह 'संक्लिश्यमानक सूक्ष्मसम्परायसंयम' है, क्योंकि पतन होने के कारण उस समय परिणाम संक्लेश- प्रधान ही होते जाते हैं।
(ख) उपशमश्रेणि या क्षपकश्रेणि पर चढ़नेवालों को दसवें गुणस्थान में जो संयम होता है, वही 'विशुद्ध्यमानक सूक्ष्मसम्परायसंयम' है; क्योंकि उस समय के परिणाम विशुद्धि - प्रधान ही होते हैं।
(५) जो संयम यथातथ्य है अर्थात् जिसमें कषाय का उदय-लेश भी नहीं है, वह 'यथाख्यातसंयम' है। इसके (क) 'छाद्मस्थिक' और (ख) 'अछाद्मस्थिक' ये दो भेद हैं।
(क) ‘छाद्मस्थिकयथाख्यातसंयम' वह है, जो ग्यारहवें - बारहवें गुणस्थान वालों को होता है। ग्यारहवें गुणस्थान की अपेक्षा बारहवें गुणस्थान में विशेषता यह है कि ग्यारहवें में कषाय का उदय नहीं होता, उसकी सत्तामात्र होती है; पर बारहवें में तो कषाय की सत्ता भी नहीं होती ।
(ख) 'अछाद्मस्थिकयथाख्यातसंयम' केवलियों को होता है । सयोगी केवली का संयम 'सयोगीयथाख्यात' और अयोगी केवली का संयम ‘अयोगीयथाख्यात' है।
(६) कर्मबन्ध-जनक आरम्भ समारम्भ से किसी अंश में निवृत्त होना 'देशविरतिसंयम' कहलाता है। इसके अधिकारी गृहस्थ हैं ।
१. श्रावक की दया का परिमाण – मुनि सब तरह की हिंसा से मुक्त रह सकते हैं, इसलिये उनकी दया परिपूर्ण कही जाती है। पर गृहस्थ वैसे रह नहीं सकते; इसलिये उनकी
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