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________________ ४२ चौथा कर्मग्रन्थ (३) 'परिहारविशुद्धसंयम'१ वह है, जिसमें 'परिहारविशुद्धि' नाम की तपस्या की जाती है। परिहारविशुद्धि तपस्या का विधान संक्षेप में इस प्रकार है नौ साधुओं का एक गण (समुदाय ) होता है, जिसमें से चार तपस्वी बनते हैं, चार उनके परिचारक (सेवक और एक वाचनाचार्य) जो तपस्वी हैं, वे ग्रीष्मकाल में जघन्य एक, मध्यम दो और उत्कृष्ट तीन उपवास करते हैं। शीतकाल में जघन्य दो, मध्यम तीन, और उत्कृष्ट चार, उपवास करते हैं; परन्तु वर्षाकाल में जघन्य तीन, मध्यम चार और उत्कृष्ट पाँच उपवास करते हैं। तपस्वी, पारणा के दिन अभिग्रहसहित आयंबिल२ व्रत करते हैं। यह क्रम, छ: महीने तक चलता है। दूसरे छ: महीनों में पहले के तपस्वी तो परिचारक बनते हैं और परिचारक, तपस्वी। दूसरे छः महीने के लिये तपस्वी बने हुये साधुओं की तपस्या का वही क्रम होता है, जो पहले के तपस्वियों की तपस्या का। परन्तु जो साधु परिचारकपद ग्रहण किये हुये होते हैं, वे सदा आयंबिल ही करते हैं। दूसरे छः महीने के बाद, तीसरे छ: महीने के लिये वाचनाचार्य ही तपस्वी बनते हैं; शेष आठ साधुओं में से कोई एक वाचनाचार्य और बाकी के सब परिचारक होते हैं। इस १. इस संयम का अधिकार पाने के लिये गृहस्थ-पर्याय (उम्र का जवन्य प्रमाण २९ साल साधु-पर्याय (दीक्षाकाल) का जघन्य प्रमाण २० साल और दोनों पर्याय का उत्कृष्ट प्रमाण कुछ कम करोड़ पूर्व वर्ष माना है। यथा 'एयस्स एस नेओ, गिहिपरिआओ जहन्नि गुणतीसा। जइयरियाओ वीसा, दोसुवि उक्कोस देसूणा।' इस संयम के अधिकारी को साढ़े नव पूर्व का ज्ञान होता है; यह श्रीजयसोमसूरि ने अपने टबे में लिखा है। इसका ग्रहण तीर्थङ्कर या तीर्थङ्कर के अन्तेवासी के पास माना गया है। इस संयम को धारण करनेवाले मुनि, दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा व विहार कर सकते हैं और अल्य समय में ध्यान, कायोत्सर्ग आदि। परन्तु इस विषय में दिगम्बर-शास्त्र का थोड़ासा मत-भेद है। उसमें तीस वर्ष की उम्रवाले को इस संयम का अधिकारी माना है। अधिकारी के लिये नौ पूर्वका ज्ञान आवश्यक बतलाया है। तीर्थङ्कर के सिवाय और किसी के पास उस संयम के ग्रहण करने की उसमें मनाही है। साथ ही तीन संध्याओं को छोड़कर दिन के किसी भाग में दो कोस तक जाने की उसमें सम्मति है। यथा___'तीसं वासो जम्मे, वासपुषत्तं खु तित्थयरमूले। पञ्चक्खाणं पडिदो, संझूण दुगाउयविहारो।।४७२।।' २. यह एक प्रकार का व्रत है, जिसमें घी, दूध आदि रस को छोड़ कर केवल अन्न खाया जाता है; सो भी दिन में एक ही दफा। पानी इसमें गरम पिया जाता है। -आवश्यक नि., गा. १६०३-५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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