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________________ मार्गणास्थान-अधिकार ४१ (क) 'इत्वरसामायिक संयम' वह है, जो अभ्यासार्थी शिष्यों को स्थिरता प्राप्त करने के लिये पहले-पहल दिया जाता है और जिसकी काल मर्यादा उपस्थापन पर्यन्त-बड़ी दीक्षा लेने तक-मानी गई है। यह संयम भरत-ऐरावतक्षेत्र में प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के शासन के समय ग्रहण किया जाता है। इसके धारण करनेवालों को प्रतिक्रमण सहित पाँच महाव्रत अङ्गीकार करने पड़ते हैं तथा इस संयम के स्वामी ‘स्थितकल्पी'१ होते हैं। ___ (ख) 'यावत्कथितसामायिकसंयम' वह है, जो ग्रहण करने के समय से जीवपर्यन्त पाला जाता है। ऐसा संयम भरत-ऐरावत-क्षेत्र में मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों के शासन में ग्रहण किया जाता है, पर महाविदेह क्षेत्र में तो यह संयम, सब समय में लिया जाता है। इस संयम के धारण करनेवालों को महाव्रत चार और कल्प स्थितास्थित होता है। (२) प्रथम संयम-पर्याय को छेदकर फिर से उपस्थापन (व्रतारोपण) करना-पहले जितने समय तक संयम का पालन किया हो, उतने समय को व्यवहार में न गिनना और दुबारा संयम ग्रहण करने के समय से दीक्षाकाल गिनना व छोटे-बड़े का व्यवहार करना-'छेदोपस्थापनीयसंयम' है। इसके (क) 'सातिचार' और (ख) 'निरतिचार', ये दो भेद हैं। (क) “सातिचार-छेदोपस्थापनीयसंयम' वह है, जो किसी कारण से मूलगुणों का-महाव्रतों का-भङ्ग हो जाने पर फिर से ग्रहण किया जाता है। (ख) 'निरतिचार-छेदोपस्थापनीय', उस संयम को कहते हैं, जिसको इत्वरसामायिक संयम वाले बड़ी दीक्षा के रूप में ग्रहण करते हैं। यह संयम, भरत-ऐरावत-क्षेत्रों में प्रथम तथा चरम तीर्थङ्कर के साधुओं को होता है और एक तीर्थ के साधु, दूसरे तीर्थ में जब दाखिल होते हैं; जैसे-श्रीपार्श्वनाथ के केशीगाङ्गेय आदि सान्तानिक साधु, भगवान् महावीर के तीर्थ में दाखिल हुये थे; तब उन्हें भी पुनर्दीक्षारूप में यही संयम होता है। १. आचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातरपिण्ड, राजपिण्ड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास और पर्युषणा, इन दस कल्पों में जो स्थित हैं, वे 'स्थितकल्पी' और शय्यातरपिण्ड, व्रत, ज्येष्ठ तथा कृतिकर्म, इन चार में नियम से स्थित और शेष छ: कल्पों में जो अस्थित होते हैं, वे 'स्थितस्थितकल्पी' कहे जाते हैं। -आव. हारिभद्री वृत्ति, पृ. ७९०, पञ्चाशक, प्रकरण १७। २. इस बात का वर्णन भगवतीसूत्र में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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