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________________ मार्गणास्थान-अधिकार ५५ के अतिरिक्त अन्य जीवों में तथाविध-द्रव्यमान का सम्बन्ध न होने के कारण मनोयोग नहीं होता और मिश्रसम्यक्त्व की योग्यता भी नहीं होती। एकेन्द्रिय में भाषापर्याप्ति नहीं होती। भाषापर्याप्ति के अतिरिक्त वचनयोग का होना संभव नहीं। द्वीन्द्रिय आदि जीवों में भाषापर्याप्ति का संभव है। वे जब सम्पूर्ण स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर लेते हैं, तभी उनमें भाषापर्याप्ति के हो जाने से वचनयोग हो सकता है। इसी से वचनयोग में पर्याप्त द्वीन्द्रिय आदि उपर्युक्त पाँच जीवस्थान माने हुए हैं। आँख वालों को ही चक्षुर्दर्शन हो सकता है। चतुरिन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन तीन प्रकार के ही जीवों को आँखें होती हैं। इसी से इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार के जीवों में चक्षुर्दर्शन का अभाव है। उक्त तीन प्रकार के जीवों के विषय में भी दो मत' हैं। पहले मत के अनुसार उनमें स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण बन जाने के बाद ही चक्षुर्दर्शन माना जाता है। दूसरे मत के अनुसार स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण होने १. इन्द्रियपर्याप्ति की नीचे-लिखी दो व्याख्यायें, इन मतों की जड़ हैं (क) 'इन्द्रियपर्याप्ति जीव की वह शक्ति है, जिसके द्वारा धातुरूप में परिणत आहार-पुद्गलों में से योग्य पुद्गल, इन्द्रियरूप में परिणत किये जाते हैं।' यह व्याख्या प्रज्ञापना-वृत्ति तथा पञ्चसंग्रह वृत्ति पृ. ६/१ में है। इस व्याख्या के अनुसार इन्द्रियपर्याप्ति का मतलब, इन्द्रिय-जनक शक्ति से है। इस व्याख्या को माननेवाले पहले मत का आशय यह है कि स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण बन चुकने के बाद (पर्याप्ति-अवस्था में) सब को इन्द्रियजन्यं उपयोग होता है, अपर्याप्त-अवस्था में नहीं। इसलिये इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन चुकने के बाद, नेत्र होने पर भी अपर्याप्तअवस्था में चतुरिन्द्रिय आदि को चक्षुर्दर्शन नहीं माना जाता। (ख) 'इन्द्रियपर्याप्ति जीव की वह शक्ति है, जिसके द्वारा योग्य आहार पुद्गलों को इन्द्रियरूप में परिणत करके इन्द्रिय-जन्य बोध का सामर्थ्य प्राप्त किया जाता हैयह व्याख्या बृहत् संग्रहणी पृ. १३८ तथा भगवती-वृत्ति पृ. २६६/१ में है। इसके अनुसार इन्द्रियपर्याप्ति का मतलब, इन्द्रिय-रचना से लेकर इन्द्रिय-जन्य उपयोग तक की सब क्रियाओं को करनेवाले शक्ति से है। इस व्याख्या को माननेवाले दूसरे मत के अनुसार इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन जाने से अपर्याप्त-अवस्था में भी सबको इन्द्रिय-जन्य उपयोग होता है। इसलिये इन्द्रियपर्याप्ति बन जाने के बाद नेत्र-जन्य उपयोग होने के कारण अपर्याप्त-अवस्था में भी चतुरिन्द्रिय आदि को चक्षुर्दर्शन मानना चाहिये। इस मत की पुष्टि, पञ्चसंग्रह-मलयगिरि-वृत्ति के ८/१ पृष्ठ पर उल्लिखित इस मन्तव्य से होती है___'करणापर्याप्तेषु चतुरिन्द्रियादिष्विन्द्रियपर्याप्तौ सत्यां चक्षुर्दर्शनमपि प्राप्यते।' इन्द्रियपर्याप्ति को उक्त दोनों व्याख्याओं का उल्लेख, लोक प्र.सं., श्लो. २०-२१ में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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