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चौथा कर्मग्रन्थ
के पहले भी-अपर्याप्त-अवस्था में भी-चक्षुर्दर्शन माना जाता है; किन्तु इसके लिये इन्द्रियपर्याप्ति का पूर्ण बन जाना आवश्यक है; क्योंकि इन्द्रियपर्याप्ति न बन जाय तब तक आँख के पूर्ण न बनने से चक्षुर्दर्शन हो ही नहीं सकता। इस दूसरे मत के अनुसार चक्षुर्दर्शन में छह जीवस्थान माने हुए हैं और पहले मत के अनुसार तीन जीवस्थान।।१७॥
थीनरपणिंदि चरमा, चउ अणहारेदु संनि छ अपज्जा। ते सुहुमअपज्ज विणा, सासणि इत्तो गुणे वुच्छं।।१८।। स्त्रीनरपञ्चेन्द्रिये चरमाणि, चत्वार्यनाहार के द्वौ साञ्जनौ षडपर्याप्ताः ।
ते, सूक्ष्मापर्याप्तं विना, सासादन इतो गुणान् वक्ष्ये।।८।। ___ अर्थ-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और पञ्चेन्द्रियजाति में अन्तिम चार (अपर्याप्त तथा पर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, अपर्याप्त तथा पर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय) जीवस्थान हैं। अनाहारक मार्गणा में अपर्याप्त-पर्याप्त दो संज्ञी और सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, बादरएकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, ये छः अपर्याप्त, कुल आठ जीवस्थान हैं। सासादन सम्यक्त्व में उक्त आठ में से सक्ष्म-अपर्याप्त को छोड़कर शेष सात जीवस्थान हैं।
अब आगे गुणस्थान कहे जायेंगे।।१८।। .
भावार्थ-स्त्रीवेद आदि उपर्युक्त तीन मार्गणाओं में अपर्याप्त असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय आदि चार जीवस्थान कहे हुए हैं। इसमें अपर्याप्त का मतलब करणअपर्याप्त से है, लब्धि-अपर्याप्त से नहीं; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त को द्रव्यवेद, नपुंसक ही होता है।
___ असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय को यहाँ स्त्री और पुरुष, ये दो वेद माने हैं और सिद्धान्त' में नपुंसक; तथापि इसमें कोई विरोध नहीं है। क्योंकि यहाँ का कथन द्रव्यवेद की अपेक्षा से और सिद्धान्त का कथन भाववेद की अपेक्षा से हैं। भाव नपुंसकवेद वाले को स्त्री या पुरुष के भी चिह्न होते हैं।
१. 'तेणं भन्ते असंनिपंचेन्द्रिय तिरिक्खजोणिया किं इत्थिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसकवेयगा? गोयमा! नो इथिवेयगा नो पुरिसवेयगा, नपुंसकवेयगा।'
-भगवती। २. 'यद्यपि चासंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ती नपुंसको तथापि स्त्रीपुंसलिङ्गाकारमात्रमङ्गीकृत्य
स्त्रीपुंसावुक्ताविति।' -पञ्चसंग्रह द्वार १, गा. २४ की मूल टीका।
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