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चौथा कर्मग्रन्थ विशेष अवधि-उपयोग से सामान्य अवधि-उपयोग भिन्न है; इसलिये जिस प्रकार अवधि उपयोगवाले सम्यक्त्व में अवधिज्ञान और अवधिदर्शन, दोनों अलग-अलग हैं, इसी प्रकार अवधि उपयोगवाले अज्ञानी में भी विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, ये दोनों वस्तुत: भिन्न हैं सही, तथापि विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, इन दोनों के पारस्परिक भेद की अविवक्षामात्र है। भेद विवक्षित न रखने का सबब दोनों का सादृश्यमात्र है। अर्थात् जैसे विभङ्गज्ञान विषय का यथार्थ निश्चय नहीं कर सकता, वैसे ही अवधिदर्शन सामान्यरूप होने के कारण विषय का निश्चय नहीं कर सकता।
इस अभेद-विवक्षा के कारण पहले मत के अनुसार चौथे आदि नौ गुणस्थानों में और दूसरे मत के अनुसार तीसरे आदि दस गुणस्थानों में अवधिदर्शन समझना चाहिये।
(ख) सैद्धान्तिक विद्वान् विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, दोनों के भेद की विवक्षा करते हैं, अभेद की नहीं। इसी कारण वे विभङ्गज्ञानों में अवधिदर्शन मानते हैं। उनके मत से केवल पहले गुणस्थान में विभङ्गज्ञान संभव है, दूसरे आदि में नहीं। इसलिये वे दूसरे आदि ग्यारह गुणस्थानों में अवधिज्ञान के साथ और पहले गुणस्थान में विभङ्गज्ञान के साथ अवधिज्ञानी के और विभङ्गज्ञानी के दर्शन में निराकारता-अंश समान ही है। इसलिये विभङ्गज्ञानी के दर्शन की 'विभङ्गदर्शन' ऐसी अलग संज्ञा न रखकर 'अवधिदर्शन' ही संज्ञा रक्खी है।
सारांश, कार्मग्रन्थिक-पक्ष, विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, इन दोनों के भेद की विवक्षा नहीं करता और सैद्धान्तिक-पक्ष करता है।
-लोकप्रकाश सर्ग ३, श्लो. १०५७ से आगे। इस मत-भेद का उल्लेख विशेषणवती ग्रन्थ में श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने किया है, जिसकी सूचना प्रज्ञापना-पद १८, वृत्ति पृ. (कलकत्ता) ५६६ पर है।
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