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________________ परिशिष्ट परिशिष्ट 'ढ' पृष्ठ ८३, पंक्ति २० के 'आहारक' शब्द पर (केवलज्ञानी के आहार पर विचार ) तेरहवें गुणस्थान के समय आहारकत्व का अङ्गीकार यहाँ के समान दिगम्बरीय ग्रन्थों में है । - तत्त्वार्थ अ. १, सू. ८की सर्वार्थसिद्धि । १७५ 'आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्ट्यादीनि सयोग केवल्यन्तानि' । इस तरह गोम्मटसार-जीवकाण्ड ६६५ और ६९७वीं गाथा भी इसके लिये देखने योग्य है। उक्त गुणस्थान में असातावेदनीय का उदय भी दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों ( दूसरा कर्मग्रन्थ गा. २२, कर्मकाण्ड, गा. २७१) में माना हुआ है। इसी तरह उस समय आहारसंज्ञा न होने पर भी कार्मणशरीर नामकर्म के उदय से कर्म पुद्गलों की तरह औदारिकशरीर नामकर्म के उदय से औदारिक- पुद्गलों का ग्रहण दिगम्बरीय ग्रन्थ (लब्धिसार गा. ६१४ ) में भी स्वीकृत है। आहारकत्व की व्याख्या गोम्मटसार में इतनी अधिक स्पष्ट है कि जिससे केवली के द्वारा औदारिक, भाषा और मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण किये जाने के सम्बन्ध में कुछ भी सन्देह नहीं रहता (जीव. गा. ६६३ - ६६४) । औदारिक पुद्गलों का निरन्तर ग्रहण भी एक प्रकार का आहार है, जो 'लोमाहार' कहलाता है। इस आहार के लिये जाने तक शरीर का निर्वाह और इसके अभाव में शरीर का अनिर्वाह अर्थात् योग-प्रवृत्ति पर्यन्त औदारिक पुद्गलों का ग्रहण अन्वयव्यतिरेक से सिद्ध है। इस तरह केवलज्ञानी में आहारकत्व, उसका कारण असातावेदनीय का उदय और औदारिक पुद्गलों का ग्रहण, दोनों सम्प्रदाय को समानरूप से मान्य है । दोनों सम्प्रदाय की यह विचार - समता इतनी अधिक है कि इसके सामने कवलाहार का प्रश्न विचारशीलों की दृष्टि में आप ही आप हल हो जाता है। केवलज्ञानी कवलाहार को ग्रहण नहीं करते, ऐसा माननेवाले भी उनके द्वारा अन्य सूक्ष्म औदारिक पुद्गलों का ग्रहण किया जाना निर्विवाद मानते ही हैं। जिनके मत में केवलज्ञानी कवलाहार ग्रहण करते हैं; उनके मत से वह स्थूल औदारिक पुद्गल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इस प्रकार कवलाहार माननेवाले- न माननेवाले उभय के मत में केवलज्ञानी के द्वारा किसी-न-किसी प्रकार के औदारिक पुद्गलों का ग्रहण किया जाना समान है। ऐसी दशा में कवलाहार के प्रश्न को विरोध का साधन बनाना अर्थहीन है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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