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चौथा कर्मग्रन्थ
परिशिष्ट 'त'
पृष्ठ ९६, पंक्ति २० के 'दृष्टिवाद' शब्द पर
(स्त्री को दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अङ्ग पढ़ने का निषेध है, इस पर विचार | ) समानता - व्यवहार और शास्त्र, ये दोनों, शारीरिक और आध्यात्मिकविकास में स्त्री को पुरुष के समान सिद्ध करते हैं । कुमारी ताराबाई का शारीरिकबल में प्रो. राममूर्ति से कम न होना, विदुषी ऐनी बीसेन्ट का विचार व वक्तृत्वशक्ति में अन्य किसी विचारक वक्ता - पुरुष से कम न होना एवं विदुषी सरोजिनी नाइडू का कवित्व शक्ति में किसी प्रसिद्ध पुरुष - कवि से कम न होना, इस बात का प्रमाण है कि समान साधन और अवसर मिलने पर भी स्त्री भी पुरुष - - जितनी योग्यता प्राप्त कर सकती है। श्वेताम्बर आचार्यों ने स्त्री को पुरुष के बराबर योग्य मान कर उसे कैवल्य व मोक्ष की अर्थात् शारीरिक और आध्यात्मिक पूर्ण विकास की अधिकारिणी सिद्ध किया है। इसके लिये देखिये, प्रज्ञापना- सूत्र. ७, पृ. १८; नन्दी-सू. २१, पृ. १३०/१।
इस विषय में मतभेद रखने वाले दिगम्बर - आचार्यों के विषय में उन्होंने बहुत कुछ लिखा है। इसके लिये देखिये, नन्दी - टीका, पृ. १३१/१-१३३/ १; प्रज्ञापना- टीका, २०-२२ / १; पृ. शास्त्रवार्तासमुच्चय-टीका, पृ. ४२५
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आलङ्कारिक पण्डित राजशेखर ने मध्यस्थ भावपूर्वक स्त्रीजाति को पुरुषजाति के तुल्य बलताया है
'पुरुषवत् योषितोऽपि कवीभवेयुः । संस्कारो ह्यात्मनि समवैति, न स्त्रैणं पौरुषं वा विभागमपेक्षते । श्रूयन्ते दृश्यन्ते च राजपुत्र्यो महामात्यदुहितरो गणिकाः कौतुकिभार्याश्च शास्त्रप्रतिबुद्धाः कवयश्च । ' -काव्यमीमांसा-अध्याय १० ।
( विरोध: ) - स्त्री को दृष्टिवाद के अध्ययन का जो निषेध किया है, इसमें दो तरह से विरोध आता है - १. तर्क- दृष्टि और २. शास्त्रोक्त मर्यादा से।
१. एक ओर स्त्री को केवलज्ञान व मोक्ष तक की अधिकारिणी मानना और दूसरी ओर उसे दृष्टिवाद के अध्ययन के लिये - श्रुतज्ञान-विशेष के लिये - अयोग्य बतलाना, ऐसा विरुद्ध जान पड़ता है, जैसे किसी को रत्न सौंपकर कहना कि तुम कौड़ी की रक्षा नहीं कर सकते।
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