SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट २. दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध करने से शास्त्र - कथित कार्य-कारणभाव की मर्यादा भी बाधित हो जाती है। जैसे— शुक्लध्यान के पहले दो पाद प्राप्त किये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता; 'पूर्व' के ज्ञान के बिना शुक्लध्यान के प्रथम दो पाद प्राप्त नहीं होते और 'पूर्व', दृष्टिवाद एक हिस्सा है। यह मर्यादा शास्त्र में निर्विवाद स्वीकृत है। - तत्त्वार्थ- अ. ९, सू. ३९। 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः । ' इस कारण दृष्टिवाद के अध्ययन की अनधिकारिणी स्त्री को केवलज्ञान की अविकारिणी मान लेना स्पष्ट विरुद्ध जान पड़ता है। दृष्टिवाद अनधिकार के कारणों के विषय में दो पक्ष हैं १७७ (क) पहला पक्ष, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि का है। इस पक्ष में स्त्री में तुच्छत्व, अभिमान, इन्द्रिय- चाञ्चल्य, मति- मान्द्य आदि मानसिक दोष दिखाकर उसको दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध किया है। इसके लिये देखिये, विशे. भा., ५५२वीं गाथा । (ख) दूसरा पक्ष, श्रीहरिभद्रसूरि आदि का है । इस पक्ष में अशुद्धि रूप शारीरिक- दोष दिखाकर उसका निषेध किया है। यथा 'कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेधः ? तथाविधविग्रहे ततो दोषात्' । - ललितविस्तरा, पृ. १११ / १ । (नय दृष्टि से विरोध का परिहार ) – दृष्टिवाद के अनधिकार से स्त्री को केवलज्ञान के पाने में जो कार्य-कारण-भाव का विरोध दीखता है, वह वस्तुतः विरोध नहीं है; क्योंकि शास्त्र, स्त्री में दृष्टिवाद के अर्थ - ज्ञान की योग्यता मानता है; निषेध सिर्फ शाब्दिक-अध्ययन का है। 'श्रेणिपरिणतौ तु कालगर्भवद्भावतो भावोऽविरुद्ध एव । ' - ललितविस्तरा तथा इसकी श्रीमुनिभद्रसूरि - कृत पञ्चिका, पृ. १११। तप, भावना आदि से जब ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम तीव्र हो जाता है, तब स्त्री शाब्दिक - अध्ययन के अतिरिक्त ही दृष्टिवाद का सम्पूर्ण अर्थ - ज्ञान कर लेती है और शुक्लध्यान के ही पाद पाकर केवलज्ञान को भी पा लेती है 'यदि च 'शास्त्रयोगागम्यसामर्थ्ययोगावसेयभावेष्वतिसूक्ष्मेष्वपि तेषां - विशिष्ट क्षयोपशमप्रभवप्रभावयोगात् पूर्वधरस्येव बोधातिरेकसद्भावादाद्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy