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मार्गणास्थान - अधिकार
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श्रेणियों के प्रदेश २५६००००० होते हैं, क्योंकि प्रत्येक सूचि - श्रेणि के प्रदेश, कल्पना से ३२००००० मान लिये गये हैं । यही संख्या वैमानिकों की संख्या समझनी चाहिये।
भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक सब देव मिलकर नारकों से असंख्यातगुण होते हैं।
देवों से तिर्यञ्चों के अनन्तगुण होने का कारण यह है कि अनन्तकायिकवनस्पति जीव, जो संख्या में अनन्त हैं, वे भी तिर्यञ्च हैं। क्योंकि वनस्पतिकायिक जीवों को तिर्यञ्चगति नामकर्म का उदय होता है ||३७||
इन्द्रिय और कायमार्गणा का अल्प- बहुत्व' पणचउतिदुएगिंदि, थोवा तिन्नि अहिया अनंतगुणातस थोव असंखग्गी, भूजलनिल अहिय वण णंता ।। ३८ ।
स्तोकास्त्रयोऽधिका
पञ्चचतुस्त्रिद्वयेकेन्द्रियाः, अनन्तगुणाः । त्रसाः स्तोका असंख्या, अग्नयो भूजलानिला अधिका वना अनन्ताः । । ३८ ॥ अर्थ-पञ्चेन्द्रिय जीव सबसे थोड़े हैं। पञ्चेन्द्रियों से चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रयों से त्रीन्द्रिय और त्रीन्द्रियों से द्वीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं । द्वीन्द्रियों से एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुण हैं।
त्रसकायिक जीव अन्य सब काय के जीवों से थोड़े हैं। इनसे अग्निकायिक जीव असंख्यात गुण हैं। अग्निकायिकों से पृथिवीकायिक, पृथिवीकायिकों से जलकायिक और जलकायिकों से वायुकायिक विशेषाधिक हैं। वायुकायिकों से वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं ||३८||
भावार्थ - असंख्यात कोटा- कोटी योजन- प्रमाण सूचि श्रेणि के जितने प्रदेश हैं, घनीकृत लोक की उतनी सूचि श्रेणियों के प्रदेशों के बराबर द्वीन्द्रिय जीव
१. यह अल्प - बहुत्व प्रज्ञापना में पृ. १२० - १३५ / १ तक है। गोम्मटसार की इन्द्रियमार्गणा में द्वीन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त का विशेषाधिकत्व यहाँ के समान वर्णित है। - जीव. गा. १७७-७८
कायमार्गणा में तेज:कायिक आदि का भी विशेषाधिकत्व यहाँ के समान है।
- जीव. गा. २०३ से आगे । २. एक संख्या अन्य संख्या से बड़ी होकर भी जब तक दूनी न हो, तब तक वह उससे 'विशेषाधिक' कही जाती है। यथा ४ या ५ की संख्या ३ से विशेषाधिक है, पर ६ की संख्या ३ से दूनी है, विशेषाधिक नहीं ।
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