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________________ चौथा कर्मग्रन्थ व्यन्तरनिकाय के देव भी असंख्यात हैं। इनमें से किसी एक प्रकार के व्यन्तर देवों की संख्या का मान इस प्रकार बतलाया गया है। संख्यात योजनप्रमाण सूचि-श्रेणि के जितने प्रदेश हैं, उनसे घनीकृत लोक के मण्डलाकार समय प्रतर के प्रदेशों को भाग दिया जाय, भाग देने पर जितने प्रदेश लब्ध होते हैं, प्रत्येक प्रकार के व्यन्तर देव उतने होते हैं।१ इसे समझने के लिये कल्पना कीजिये कि संख्यात योजन प्रमाण सूचिश्रेणि के १०००००० प्रदेश हैं। प्रत्येक सूचि-श्रेणि के ३२००००० प्रदेशों की कल्पित संख्या के अनुसार, समग्र प्रतर के १०२४०००००००००० प्रदेश हुए। अब इस संख्या को १०००००० भाग देने पर १०२४०००० लब्ध होते हैं। यही एक व्यन्तरनिकायकी संख्या हुई। यह संख्या वस्तुत: असंख्यात है। ज्योतिषी देवों की असंख्यात संख्या इस प्रकार मानी गयी है। २५६ अङ्गल-प्रमाण सूचि-श्रेणि के जितने प्रदेश होते हैं, उनसे समग्र प्रतर के प्रदेशों को भाग देना, भाग देने से जो लब्ध हों, उतने ज्योतिषी देवरे हैं। इसको भी कल्पना से इस प्रकार समझना चाहिये। २५६ अङ्गुल-प्रमाण सूचि-श्रेणि में ६५५३६ प्रदेश होते हैं, उनसे समग्र प्रतर के कल्पित १०२४०००००००००० को भाग देना, भागने से लब्ध हुए १५६२५००००, यही मान, ज्योतिषी देवों का समझना चाहिये। वैमानिक देव, असंख्यात हैं। इनकी असंख्यात संख्या इस प्रकार दरसायी गयी है-अङ्गुलमात्र आकाश-क्षेत्र के जितने प्रदेश हैं, उनके तीसरे वर्गमूल का घन करने से जितने आकाश-प्रदेश हों, उतनी सूचि-श्रेणियों के प्रदेशों के बराबर वैमानिकदेव हैं। इसको कल्पना से इस प्रकार बतलाया जा सकता है-अङ्गलमात्र आकाश के २५६ प्रदेश हैं। २५६ का तीसरा वर्गमूल २। २का घन ८ है। ८ सूचि १. व्यन्तर का प्रमाण गोम्मटसार में यही जान पड़ता है। देखिये, जीवकाण्ड की १५९वीं गाथा। २. ज्योतिषी देवों की संख्या गोम्मटसार में भिन्न है। देखिये, जीवकाण्ड की १५९वीं गाथा। ३. किसी संख्या के वर्ग के साथ उस संख्या को गुणने से जो गुणनफल प्राप्त होता है, वह उस संख्या का 'घन' है। जैसे–४ का वर्ग १६, उसके साथ ४ को गुणने से ६४ होता है। यही चार का घन है। ४. सब वैमानिकों की संख्या गोम्मटसार में एक न देकर जुदा-जुदा दी है। -जीव. गा. १६०-१६२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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