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मंगल और विषय
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कर्म-जन्य हैं। ज्ञान, दर्शन आदि पर्याय, जो जीव के गुणों के ही कार्य हैं, वे भावप्राण हैं। जीव की यह व्याख्या संसारी अवस्था को लेकर की गई है, क्योंकि जीवस्थानों में संसारी जीवों का ही समावेश है; अतएव वह मुक्त जीवों में लागू नहीं हो सकती। मुक्त जीव में निश्चयदृष्टि से की हुई व्याख्या घटती है; जैसेजिसमें चेतना गुण है, वह 'जीव' इत्यादि है । '
(२) मार्गणा के अर्थात् गुणस्थान, योग, उपयोग आदि की विचारणा के स्थानों (विषयों) को 'मार्गणास्थान' कहते हैं। जीव के गति, इन्द्रिय आदि अनेक प्रकार के पर्याय ही ऐसे स्थान हैं, इसलिये वे मार्गणास्थान कहलाते हैं ।
(३) ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के तरतमभाव से होनेवाले जीव के भिन्न-भिन्न स्वरूपों को गुणस्थान कहते हैं।
जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये सब जीव की अवस्थायें हैं, तो भी इनमें अन्तर यह है कि जीवस्थान, जाति- नामकर्म, पर्याप्त - नामकर्म और अपर्याप्त-नामकर्म के औदयिक भाव हैं, मार्गणास्थान, नाम, मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और वेदनीयकर्म के औदयिक आदि भावरूप तथा पारिणामिक भावरूप हैं और गुणस्थान, सिर्फ मोहनीयकर्म के औदयिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक भावरूप तथा योग के भावाभावरूप हैं।
१. 'तिक्काले चदु पाणा, इंदियबलमाउआणपाणो य ।
ववहारा सो जीवो, णिच्छयणयदो दु चेदणा चस्स । । ३ । । ' २. इस बात को गोम्मटसार - जीवकाण्ड में भी कहा है
'जाहि व जासु व जीवा, मग्गिज्जंते जहा तहा दिट्ठा । ताओ चोदस जाणे, सुयणाणे मग्गणा होति । । १४० ।। '
जिन पदार्थों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में जीवों की विचारणा, सर्वज्ञ की दृष्टि के अनुसार की जाये, वे पर्याय 'मार्गणास्थान' हैं।
गोम्मटसार में 'विस्तार', 'आदेश' और 'विशेष', ये तीन शब्द मार्गणास्थान के नामान्तर पाये गये हैं— जीव, गा. ३।
३. इसकी व्याख्या गोम्मटसार - जीवकाण्ड में इस प्रकार है
'जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा, णिद्दिट्ठा सव्वदरसीहिं । । ८ । । '
दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के औदायिक आदि जिन भावों (पर्यायों) के द्वारा जीव का बोध होता है, वह भाव 'गुणस्थान' है। गोम्मटसार में 'संक्षेप', 'ओव', 'सामान्य' और 'जीवसमास', ये चार शब्द गुणस्थान के समानार्थक हैं। (जीव, गा. ३ तथा १० )
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