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चौथा कर्मग्रन्थ
(४) चेतना - शक्ति का बोधरूप व्यापार, जो जीव का असाधारण स्वरूप है और जिसके द्वारा वस्तु का सामान्य तथा विशेष स्वरूप जाना जाता है, उसे 'उपयोग' कहते हैं।
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(५) मन, वचन या काय के द्वारा होनेवाला वीर्य-शक्ति का परिस्पन्दआत्मा के प्रदेशों में हलचल (कम्पन) — 'योग' है।
(६) आत्मा का सहजरूप स्फटिक के समान निर्मल है। उसके भिन्न-भिन्न परिणाम जो कृष्ण, नील आदि अनेक रंगवाले पुद्गलविशेष के असर से होते हैं, उन्हें 'लेश्या'' कहते हैं ३ ।
(७) आत्मा के प्रदेशों के साथ कर्म- पुद्गलों का जो दूध-पानी के समान सम्बन्ध होता है, वही 'बन्ध' कहलाता है । बन्ध, मिथ्यात्व आदि हेतुओं से होता है।
(८) बँधे हुए कर्म - दलिकों का विपाकानुभव (फलोदय) 'उदय' कहलाता है। कभी तो विपाकानुभव, अबाधाकाल पूर्ण होने पर होता है और कभी नियत अबाधाकाल पूर्ण होने के पहले ही अपवर्तना' आदि करण से होता है।
(९) जिन कर्म - दलिकों का उदयकाल न आया हो, उन्हें प्रयत्न विशेष से खींचकर -बन्धकालीन स्थिति से हटाकर - उदयावलिका में दाखिल करना 'उदीरणा' कहलाती है।
(१०) बन्धन' या संक्रमण करण से जो कर्म - 1 १. गोम्मटसार - जीवकाण्ड में यही व्याख्या है।
'वत्थुनिमित्तं भावो, जादो जीवस्स जो दु उवजोगो ।
सो दुविहो णायव्वो, सायारो चेव णायारो ।। ६७१ ।। ' २. देखिये, परिशिष्ट 'क' ।
३. 'कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामोऽयमात्मनः ।
स्फटिकस्येव तत्राऽयं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते । । '
यह एक प्राचीन श्लोक है। जिसे श्रीहरिभद्रसूरि ने आवश्यक टीका पृ. ६४५ / १ पर प्रमाण रूप से लिया है।
- पुद्गल, जिस कर्मरूप
४. बँधा हुआ कर्म जितने काल तक उदय में नहीं आता, वह 'अबाधाकाल' है।
५. कर्म की पूर्व- बद्ध स्थिति और रस, जिस वीर्य शक्ति से घट जाती हैं, उसे 'अपवर्तनाकरण' कहते हैं।
६. जिस वीर्य - विशेष से कर्म का बन्ध होता है, वह 'बन्धनकरण' कहलाता है।
७. जिस वीर्य - विशेष से एक कर्म का अन्य सजातीय कर्मरूप में संक्रम होता है, वह
'संक्रमणकरण' है।
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