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________________ चौथा कर्मग्रन्थ किया गया है; यथा-(१) गुणस्थान, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध, (६) उदय, (७) उदीरणा और (८) सत्ता। दूसरे विभाग में मार्गणास्थान पर छ: विषयों की विवेचना की गई है—(१) जीवस्थान, (२) गुणस्थान, (३) योग, (४) उपयोग, (५) लेश्या और (६) अल्पबहुत्व। तीसरे विभाग में गुणस्थान को लेकर बारह विषयों का वर्णन किया गया है(१) जीवस्थान, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्धहेतु, (६) बन्ध, (७) उदय, (८) उदीरणा, (९) सत्ता, (१०) अल्पबहुत्व, (११) भाव और (१२) संख्यात आदि संख्या। __ जीवस्थान आदि विषयों की व्याख्या (१) जीवों के सूक्ष्म, बादर आदि प्रकारों (भेदों) को 'जीवस्थान'१ कहते हैं। द्रव्य और भाव प्राणों को जो धारण करता है, वह 'जीव' है। पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, श्वासोछ्वास और आयु, ये दस द्रव्यप्राण हैं, क्योंकि वे जड़ और श्रीदेवेन्द्रसूरि-कृत स्वोपज्ञ टीका श्रीजयसोमसूरि-कृत टब्बे में भी हैं 'चउदसजियठाणेस.चउदसगुणठाणगाणि जोगा य। उवयोगलेसबंधुद,-ओदीरणसंत अट्ठपए।।१।। चउदसमग्गणठाणे-सुमूलपएस बिसट्ठि इयरेसु। जियगुणजोगुवओगा, लेसप्पबहुंध छट्ठाणा।।२।। चउदसगुणठाणेसं. जियजोगुवओगलेसबन्या य। बंधुदयुदीरणाओ, संतप्पबहुं च दस ठाणा।।३॥' १. जीवस्थान के अर्थ में 'जीवसमास' शब्द का प्रयोग भी दिगम्बरीय साहित्य में मिलता है। इसकी व्याख्या उसमें इस प्रकार है 'जेहिं अणेया जीवा, णज्जंते बहुविदा वि तज्जादी। ते पुण संगहिदत्था, जीवसमासा ति विण्णेया।।७।। तसचदुजुगाणमझे, अविरुद्धेहिं जुदजादिकम्मुदये। जीवसमासा होति छ, तन्मवसारिच्छसामण्णा।।७१।।' -जीवकाण्ड। जिन धर्मों के द्वारा जीव तथा उनकी अनेक जातियों का बोध होता है, वे 'जीवसमास' कहलाते हैं।।७०॥ तथा त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक युगलों से अविरुद्ध नामकर्म (जैसे सूक्ष्म से अविरुद्ध स्थावर) के उदय से युक्त जाति नामकर्म का उदय होने पर जो ऊर्ध्वतासामान्य, जीवों में होती है, वह 'जीवसमास' कहलाता है।।७१॥ ____ कालक्रम से अनेक अवस्थाओं के होने पर भी एक ही वस्तु का जो पूर्वापर सादृश्य देखा जाता है, वह 'ऊर्ध्वतासामान्य है। इससे उलटा एक समय में ही अनेक वस्तुओं की जो परस्पर समानता देखी जाती है, वह 'तिर्यक्सामान्य' है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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