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श्रीवीतरागाय नमः। श्रीदेवेन्द्रसूरि-विरचित 'षडशीतिक' नामक
चौथा कर्मग्रन्थ
मंगल और विषय नमिय जिणं जिअमग्गण,-गुणठाणुवओगजोगलेसाओ। बंधप्पबहूभावे, संखिज्जाई किमवि वुच्छं।।१।।
नत्वा जिनं जीवमार्गणागुणस्थानोपयोगयोगलेश्याः।
बन्याल्पबहुत्वभावान् संख्येयादीन् किमपि वक्ष्ये।।१।।
अर्थ-श्रीजिनेश्वर भगवान् को नमस्कार करके जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, उपयोग, योग, लेश्या, बन्ध, अल्पबहुत्व, भाव और संख्या आदि विषयों को मैं संक्षेप से कहूँगा।।१।।
भावार्थ-इस गाथा में चौदह विषय संगृहीत हैं, जिनका विचार अनेक रीति से इस कर्मग्रन्थ में किया हुआ है। इनमें से जीवस्थान आदि दस विषयों का कथन तो गाथा में स्पष्ट ही किया गया है और उदय, उदीरणा, सत्ता, और बन्धहेतु, ये चार विषय 'बन्ध' शब्द से सूचित किये गये हैं।
इस ग्रन्थ के तीन विभाग हैं?—(१) जीवस्थान, (२) मार्गणास्थान, और (३) गुणस्थान। पहले विभाग में जीवस्थान को लेकर आठ विषय का विचार १. इन विषयों की संग्रह-गाथायें ये हैं
'नभिय जिणं वत्तव्या, चउदसजिअठाणएस गुणठाणा। जोगुवओगो लेसा, बंधुदओदीरणा सत्ता।।१।। तह मूलचउदमग्गण,-ठाणेसु बासहि उसरेसुं च। जिअगुणजोगुवओगा, लेसप्पबहुं च छट्ठाणा।।२।। चउदसगुणेस जिअजो,-गुवओगलेसा व बंधहेऊ या बंधाइचउअप्या,-बहं च तो भावसंखाई।।३।।'
ये गाथायें श्रीजीवविजयजी-कृत और श्रीजयसोमसूरि-कृत टबे में हैं। इनके स्थान में पाठान्तर वाली निम्नलिखित तीन गाथायें प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ हारिभद्री टीका,
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