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________________ गुणस्थानाधिकार सर्षप परिपूर्ण पल्यों का उपयोग - पल्लचउसरिसवा य। पढमतिपल्लुद्धरिया, दी दही सव्वो वि एगरासी, रूवूणो परमसंखिज्जं । । ७७ ।। प्रथमत्रिपल्योद्धृता, द्वीपोदधयः पल्यचतुः सर्षपाश्च । सर्वोप्येकराशी, रूपानः परमसंख्येयम् । । ७७।। १३९ अर्थ - जितने द्वीप - समुद्रों में एक-एक सर्षप डालने से पहले तीन पल्य खाली हो गये हैं, वे सब द्वीप - समुद्र और परिपूर्ण चार पल्यों के सर्षप, इन दोनों की संख्या मिलाने से जो संख्या हो, एक कम वही संख्या उत्कृष्ट संख्यात है॥७७॥ भावार्थ-अनवस्थित, शलाका और प्रतिशलाका - पल्य को बार-बार सर्षपों से भर कर उनको खाली करने की जो विधि ऊपर दिखलाई गई है, उसके अनुसार जितने द्वीपों में तथा जितने समुद्रों में एक-एक सर्षप पड़ा हुआ है, उन सब द्वीपों की तथा सब समुद्रों की संख्या में चारों पल्य के भरे हुए सर्षपों की संख्या मिला देने से जो संख्या होती है, एक कम वही संख्या उत्कृष्ट संख्यात है। उत्कृष्ट संख्यात और जघन्य संख्यात, इन दो के बीच की सब संख्या को मध्यम संख्यात समझना चाहिये। शास्त्रों में जहाँ कहीं संख्यात शब्द का व्यवहार हुआ है, वहाँ सब जगह मध्य संख्यात से ही मतलब है || ७७৷ असंख्यात और अनन्त का स्वरूप (दो गाथाओं से) - रूवजुयं तु परित्ता, संखं लहु अस्स रासि अब्भासे । जुत्तासंखिज्जं लहु आवलियासमयपरिमाणं । । ७८ ।। रूपयुतं तु परीत्तासंख्यं लध्वस्य राशेरभ्यासे । युक्तासंख्येयं लघु, आवलिकासमयपरिमाणम् । । ७८ । । Jain Education International अर्थ- उत्कृष्ट संख्यात में रूप (एक की संख्या) मिलाने से जघन्य परीत्तासंख्यात होता है। जघन्य परीत्तासंख्यात का अभ्यास करने से जघन्य १. दिगम्बर - शास्त्रों में भी 'रूप' शब्द एक संख्या के अर्थ में प्रयुक्त है। जैसे—– जीवकाण्ड की १०७ तथा ११०वीं गाथा आदि तथा प्रवचनसार - ज्ञयाधिकार की ७४वीं गाथा की टीका । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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