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________________ गुणस्थानाधिकार १४५ में सैद्धान्तिक और कार्मग्रन्थिक आचार्यों का कोई मतभेद नहीं है; आठवें आदि सब भेदों के स्वरूप के विषय में मतभेद है। कार्मग्रन्थिक आचार्यों का कथन है कि जघन्य युक्तासंख्यात का वर्ग करने से जघन्य असंख्यातासंख्यात होता है । जघन्य असंख्यातासंख्यात का तीन बार वर्ग करना और उसमें लोकाकाश-प्रदेश आदि की उपर्युक्त दस असंख्यात संख्याएँ मिलाना, मिलाकर फिर तीन बार वर्ग करना। वर्ग करने से जो संख्या होती है, वह जघन्य परीत्तानन्त है। जघन्य परीत्तानन्त का अभ्यास करने से जघन्य युक्तानन्त होता है। शास्त्र में अभव्य जीव अनन्त कहे गये हैं, सो जघन्य युक्तानन्त समझना चाहिये । जघन्य युक्तानन्त का एक बार वर्ग करने से अनन्तानन्त होता है। जघन्य अनन्तानन्त का तीन बार वर्ग कर उसमें सिद्ध आदि की उपर्युक्त छः संख्याएँ मिलानी चाहिये। फिर उसका तीन बार वर्ग करके उसमें केवलज्ञान और केवलदर्शन के सम्पूर्ण पर्यायों की संख्या को मिलाना चाहिये। मिलाने से जो संख्या होती है, वह 'उत्कृष्ट अनन्तानन्त' है। मध्यम या उत्कृष्ट संख्या का स्वरूप जानने की रीति में सैद्धान्तिक और कार्मग्रन्थिकों में मतभेद नहीं है, पर ७९ वीं तथा ८०वीं गाथा में बतलाये हुए दोनों मत के अनुसार जघन्य असंख्यातासंख्यात का स्वरूप भिन्न-भिन्न हो जाता है, अर्थात् सैद्धान्तिक मत से जघन्य युक्तासंख्यात का अभ्यास करने पर जघन्य असंख्यातासंख्यात बनता है और कार्मग्रन्थिक मत से जघन्य युक्तासंख्यात का वर्ग करने पर जघन्य असंख्यातासंख्यात बनता है; इसलिये मध्यम युक्तासंख्यात, उत्कृष्ट युक्तासंख्यात आदि आगे की सब मध्यम और उत्कृष्ट संख्याओं का स्वरूप भिन्न-भिन्न बन जाता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात में से एक घटाने पर उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होता है । जघन्य युक्तासंख्यात और उत्कृष्ट युक्तासंख्यात के बीच की सब संख्याएँ मध्यम युक्तासंख्यात हैं। इसी प्रकार आगे भी किसी जघन्य संख्या में से एक घटाने पर उसके पीछे की उत्कृष्ट संख्या बनती है और जघन्य में एक, दो आदि की संख्या मिलाने से उसके सजातीय उत्कृष्ट तक की बीच की संख्याएँ मध्यम होती हैं। सभी जघन्य और सभी उत्कृष्ट संख्याएँ एक-एक प्रकार की हैं; परन्तु मध्य संख्याएँ एक प्रकार की नहीं हैं। मध्यम संख्यात के संख्यात भेद, मध्यम असंख्यात के असंख्यात भेद और मध्यम अनन्त के अनन्त भेद हैं, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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