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चौथा कर्मग्रन्थ के प्रदेश, (४) एक जीव के प्रदेश, (५) स्थिति-बन्ध-जनक अध्यवसाय-स्थान, (६) अनुभाग-विशेष, (७) योग के निर्विभाग अंश, (८) अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी, इन दो काल के समय, (९) प्रत्येक शरीर और (१०) निगोद शरीर।।८१-८२॥ ___ उक्त दस संख्याएँ मिलाकर फिर उसका तीन बार वर्ग करना। वर्ग करने से जघन्य परीत्तानन्त होता है। जघन्य परीत्तानन्त का अभ्यास करने से जघन्य युक्तानन्त होता है। यही अभव्य जीवों का परिमाण है।।८५।।
उसका अर्थात् जघन्य युक्तानन्त का वर्ग करने से जघन्य अनन्तानन्त होता है। जघन्य अनन्तानन्त का तीन बार वर्ग करने से भी वह उत्कृष्ट अनन्तानन्त नहीं बनता। इसलिये तीन बार वर्ग करके उसमें नीचे लिखी छः अनन्त संख्याएँ मिलाना।।८४॥
१. सिद्ध, २. निगोद के जीव, ३. वनस्पतिकायिक जीव, ४. तीनों काल के .समय, ५. सम्पूर्ण पुद्गल-परमाणु और ६. समग्र आकाश के प्रदेश, इन छ: की अनन्त संख्याओं को मिलाकर फिर से तीन बार वर्ग करना और उसमें केवल-द्विक के पर्यायों की संख्या को मिलाना। शास्त्र में अनन्तानन्त का व्यवहार किया जाता है, सो मध्यम श्रवणतानन्त का, जघन्य या उत्कृष्ट का नहीं। इस सूक्ष्मार्थविचार नामक प्रकरण को श्रीदेवेन्द्रसूरि ने लिखा है।।८५-८६॥
भावार्थ-गा. ७१ से ७९ तक में संख्या का वर्णन किया है, वह सैद्धान्तिक मत के अनुसार है। अब कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार वर्णन किया जाता है। संख्या के इक्कीस भेदों में से पहले सात भेदों के स्वरूप के विषय
बन्ध में असंख्यात अनुभाग-स्थान होते हैं। क्योंकि जितने अध्यवसाय उतने ही अनुभागस्थान होते हैं और प्रत्येक स्थिति बन्ध में कारणभूत अध्यवसाय असंख्यात लोकाकाशप्रदेश-प्रमाण है।
बोग के निर्विभाग अंश असंख्यात हैं। जिस अंश का विभाग केवलज्ञान से भी न किया जा सके, उसको निर्विभाग अंश कहते हैं। इस जगह निगोद से संज्ञी पर्यन्त सब जीवों के योग सम्बन्धी निर्विभाग अंशों की संख्या इष्ट हैं। ___ जिस शरीर का स्वामी एक ही जीव हो, वह 'प्रत्येक शरीर' है। प्रत्येक शरीर असंख्यात हैं; क्योंकि पृथ्वीकायिक से लेकर त्रसकायिक अर्पन्त सब प्रकार के प्रत्येक जीव मिलाने से असंख्यात ही हैं।
जिस एक शरीर के धारण करने वाले अनन्त जीव हों, वह 'निगोदशरीर'। ऐसे निगोदशरीर असंख्यात ही हैं। १. मूल के 'अलोक' पद से लोक और अलोक दोनों प्रकार का आकाश विवक्षित है। २. शेयपर्याय अनन्त होने से ज्ञानपर्याय भी अनन्त है।
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