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गुणस्थानाधिकार
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क्षिप्तेऽनन्तानन्तं भवति ज्येष्ठं तु व्यवहरति मध्यम्।
झत सूक्ष्माथविचारो लिखितो देवेन्द्रसूरिभिः।। ८६।।
अर्थ-पीछे सूत्रानुसारी मत कहा गया है। अब अन्य आचार्यों का मत कहा जाता है। चतुर्थ असंख्यात अर्थात् जघन्य युक्तासंख्यात का एक बार वर्ग करने से जघन्य असंख्यातासंख्यात होता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात में एक संख्या मिलाने से मध्यम असंख्यातासंख्यात होता है।।८०॥
जघन्य असंख्यातासंख्यात में से एक संख्या घटा दी जाय तो पीछे का गुरु अर्थात् उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात का तीन बार' वर्ग कर नीचे लिखी दसरे असंख्यात संख्यायें उसमें मिलाना। (१) लोकाकाश के प्रदेश, (२) धर्मास्तिकाय के प्रदेश, (३) अधर्मास्तिकाय १. किसी संख्या का तीन वार वर्ग करना हो तो उस संख्या का वर्ग करना, वर्ग-जन्य
संख्या का वर्ग करना और द्वितीय वर्ग-जन्य संख्या का भी वर्ग करना। उदाहरणार्थ५ का तीन बार वर्ग करना हो तो ५का वर्ग २५, २५का वर्ग ६२५का वर्ग ३९०६२५; यह पाँच का तीन बार वर्ग हुआ। लोककाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और एक जीव, इन चारों के प्रदेश असंख्यात-असंख्यात और आपस में तुल्य है।
ज्ञानावरणीय आदि प्रत्येक कर्म की स्थिति के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त समयभेद से असख्यात भेद हैं। जैसे-ज्ञानावरणीय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम-प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त से एक समय अधिक, दो समय अधिक, तीन समय अधिक, इस तरह एक-एक समय बढ़ते-बढ़ते एक समय कम तीस कोटाकोटी सागरोपम तक की सब स्थितियाँ मध्यम हैं। अन्तर्महर्त
और तीस कोटाकोटी सागरोपम के बीच में असंख्यात समयों का अन्तर हैं, इसलिये जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक-एक प्रकार की होने पर भी उसमें मध्यम स्थितियाँ मिलाने से ज्ञानावरणीय की स्थिति के असंख्यात भेद होते हैं। अन्य कर्मों की स्थिति के विषय में भी इसी तरह समझ लेना चाहिये। हर एक स्थिति के बन्ध में कारणभूत अध्यवसायों की संख्या असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर कही हुई है। 'पइठिइ संखलोगसमा। -गा. ५५, देवेन्द्रसूरि-कृत पञ्चम कर्मग्रन्थ।
इस जगह सब स्थिति-बन्ध के कारणभूत अध्यवसायों की संख्या विवक्षित है।
अनुभाग अर्थात् रस का कारण काषायिक परिणाम है। काषायिक परिणाम अर्थात् अध्यवसाय के तीव्र तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि रूप से असंख्यात भेद हैं। एक-एक काषायिक परिणाम में एक-एक अनुभाग-स्थान का बन्ध होता है; क्योंकि एक काषायिक परिणाम से गृहीत कर्म परमाणुओं के रस-स्पर्धकों को ही शास्त्र में अनुभाग बन्धस्थान कहा है। देखिये, कम्मपयडीकी ३१वीं गाथा श्रीयशोविजयजीकृत टीका। इसलिये काषायिक परिणाम-जन्य अनुभाग स्थान भी काषायिक परिणाम के तुल्य अर्थात् असंख्यात ही है। प्रसंगत: यह बात जाननी चाहिये कि प्रत्येक स्थिति
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