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चौथा कर्मग्रन्थ रूवूणमाइमं गुरु, तिवरिगउं तं इमे दस रक्खेवे। लोगाकासपएसा, धम्माधम्मेगजियदेसा।।८१।। ठिइ बंधज्झवसाया, अणुभागा जोगच्छेयपलिभागा। दुण्ह य समाण समया, पत्तेयनिगोयए खिवसु।।८२।। पुणरवि तंमिति वग्गिय, परित्तणंत लहु तस्स रासीणं। अन्भासे लहु जुत्ता, णंतं अभव्वजियपमाणं।। ८३।। तव्वग्गे पुण जायइ, णंताणंत लहु तं च तिक्खुत्तो। वग्गसु तह वि न तं हो,-इ णंत खेवे खिवसु छ इमे।।८४।। सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई कालपुग्गला चेव। सब्वमलोगनहं पुण, तिवग्गिउं केवलदुगंमि।। ८५।। खित्ते णंताणंतं, हवेइ जिटुं तु ववहरइ मज्झं। इय सुहुमत्थवियारो, लिहिओ देविंदसूरीहिं।।८६।।
इति सूत्रोक्तमन्ये वर्गितं सकृच्चतुर्थकमसंख्यम्। भवत्यसंख्यासंख्यं लघु रूपयुतं तु तन्मध्यम्।।८०।। रूपोनमादिमं गुरु त्रिवर्गयित्वा तदिमान् दश क्षेपान्। लोकाकाशप्रदेशा धर्माधर्मैकजीवप्रदेशाः।।८।। स्थितिबन्धाध्यवसाया अनुभागा योगच्छेदपरिभागाः। द्वयोश्च समयोः समयाः प्रत्येकनिगोदकाः क्षिप।।८२।। पुनरपि तास्मास्त्रिर्वर्गिते परीतानन्तं लघु तस्य राशीनाम्। अभ्यासे लघु युक्तानन्तमभव्यजीवप्रमाणम्।। ८३।। तद्वर्गे पुनर्जायतेऽनन्तानन्तं लघु तञ्च त्रिकृत्वः। वर्गयस्व तथापि न तद्भवत्यनन्तक्षेपान् क्षिप षडिमान्।।८४।। सिद्धा निगोदजीवा वनस्पतिः कालपुद्गलाश्चैव। सर्वमलोकनभः पुनस्त्रिर्वयित्वा केवलद्विके।।८५।।
१. ये ही दस क्षेप त्रिलोकसार की ४२ से ४४ की गाथाओं में निर्दिष्ट हैं। २. ये ही छह क्षेप त्रिलोकसार की ४९वीं गाथा में वर्णित हैं।
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