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चौथा कर्मग्रन्थ
भी प्राथमिक अवस्था को छोड़कर धीरे-धीरे शुद्ध स्वरूप का लाभ करती हुई चरम अवस्था की ओर प्रस्थान करती है। प्रस्थान के समय इन दो अवस्थाओं के बीच उसे अनेक नीची-ऊँची अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता है। प्रथम अवस्था को अविकास की अथवा अध: पतन की पराकाष्ठा और चरम अवस्था को विकास की अथवा उत्क्रान्ति की पराकाष्ठा समझना चाहिए । इस विकास - क्रम की मध्यवर्तिनी सब अवस्थाओं को अपेक्षा से उच्च भी कह सकते हैं और नीच भी। अर्थात् मध्यवर्तिनी कोई भी अवस्था अपने से ऊपरवाली अवस्था की अपेक्षा नीच और नीचेवाली अवस्था की अपेक्षा उच्च कही जा सकती है। विकास की ओर अग्रसर आत्मा वस्तुतः उक्त प्रकार की संख्यातीत आध्यात्मिक भूमिकाओं का अनुभव करती है। पर जैनशास्त्र में संक्षेप में वर्गीकरण करके उनके चौदह विभाग किये हैं, जो 'चौदह गुणस्थान' कहलाते हैं।
सभी आवरणों में मोह का आवरण प्रधान है। अर्थात् जब तक मोह बलवान् और तीव्र हो, तब तक अन्य सभी आवरण बलवान् और तीव्र बने रहते हैं। इसके विपरीत मोह के निर्बल होते ही अन्य आवरणों की वैसी ही दशा हो जाती है। इसलिए आत्मा के विकास करने में मुख्य बाधक मोह की प्रबलता और मुख्य सहायक मोह की निर्बलता समझनी चाहिये। इसी कारण गुणस्थानों की विकास-क्रमगत अवस्थाओं की कल्पना मोह-शक्ति की उत्कटता, मन्दता तथा अभाव पर अवलम्बित है।
मोह की प्रधान शक्तियाँ दो हैं। इनमें से पहली शक्ति, आत्मा को दर्शन अर्थात् स्व-रूप पर-रूप का निर्णय किंवा जड़-चेतन का विभाग या विवेक करने नहीं देती; और दूसरी शक्ति आत्मा को विवेक प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति अर्थात् अभ्यास- - पर - परिणति से छूटकर स्वरूप - लाभ नहीं करने देती । व्यवहार में कदम-कदम पर यह देखा जाता है कि किसी वस्तु का यथार्थ दर्शनबोध कर लेने पर ही उस वस्तु को पाने या त्यागने की चेष्टा की जाती है और वह सफल भी होती है। आध्यात्मिक विकासगामी आत्मा के लिये भी मुख्य दो ही कार्य हैं। पहला स्व-रूप तथा पर-रूप का यथार्थ दर्शन किंवा भेदज्ञान करना और दूसरा स्व-रूप में स्थित होना। इनमें से पहले कार्य को रोकनेवाली मोह की शक्ति जैनशास्त्र में 'दर्शनमोह' और दूसरे कार्य को रोकनेवाले मोह की शक्ति 'चारित्रमोह' कहलाती है। दूसरी शक्ति पहली शक्ति की अनुगामिनी है। अर्थात् पहली शक्ति प्रबल हो, तब तक दूसरी शक्ति कभी निर्बल नहीं होती; और पहली शक्ति के मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते ही दूसरी शक्ति भी क्रमश: वैसी ही
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