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प्रस्तावना
उक्त विचार जो प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है, वह आध्यात्मिक विद्या के अभ्यासियों के लिए अतीव उपयोगी है।
आध्यात्मिक ग्रन्थ दो प्रकार के हैं। एक तो ऐसे हैं जो सिर्फ आत्मा के शुद्ध, अशुद्ध तथा मिश्रित स्वरूप का वर्णन करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ दूसरी कोटिका है। अध्यात्म-विद्या के प्राथमिक और माध्यमिक अभ्यासियों के लिये ऐसे ग्रन्थ विशेष उपयोगी हैं; क्योंकि उन अभ्यासियों की दृष्टि व्यवहार-परायण होने के कारण ऐसे ग्रन्थों के द्वारा ही क्रमश: केवल पारमार्थिक स्वरूप-ग्राहिणी बनाई जा सकती है।
अध्यात्मिक-विद्या के प्रत्येक अभ्यासी की यह स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि आत्मा किस प्रकार और किस क्रम से आध्यात्मिक विकास करती है, तथा उसे विकास के समय कैसी-कैसी अवस्था का अनुभव होता है। इस जिज्ञासा की पूर्ति की दृष्टि से देखा जाय तो अन्य विषयों की अपेक्षा गुणस्थान का महत्त्व अधिक है। इस दृष्टि से इस जगह गुणस्थान का स्वरूप कुछ विस्तार के साथ लिखा गया है। साथ ही यह भी बतलाया जायगा कि जैनशास्त्र की तरह वैदिक तथा बौद्ध-शास्त्र में भी आध्यात्मिक विकास का कैसा वर्णन है। यद्यपि ऐसा करने में कुछ विस्तार अवश्य हो जायगा, तथापि नीचे लिखे जानेवाले विचार से जिज्ञासुओं की यदि कुछ भी ज्ञान-वृद्धि तथा रुचि-शुद्धि हुई तो यह विचार अनुपयोगी न समझा जायगा।
गुणस्थान का विशेष स्वरूप ___ गुणों (आत्मशक्तियों) के स्थानों को अर्थात् विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। जैनशास्त्र में गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्द का मतलब आत्मिक शक्तियों के आविर्भाव की-उनके शुद्ध कार्यरूप में परिणत होते रहने की तरतम-भावापन्न अवस्थाओं से है। पर आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्धचेतना और पूर्णानन्दमय है। उसके ऊपर जबतक तीव्र आवरणों के घने बादलों की घटा छाई हो, तब तक उसका असली स्वरूप दिखाई नहीं देता। किन्तु आवरणों के क्रमश: शिथिल या नष्ट होते ही उसका असली स्वरूप प्रकट होता है। जब आवरणों की तीव्रता अधिक हो, तब आत्मा प्राथमिक अवस्था मेंअविकसित अवस्था में पड़ी रहती है और जब आवरण बिल्कुल ही नष्ट हो जाते हैं, तब आत्मा चरम अवस्था-शद्ध स्वरूप की पूर्णता में वर्तमान हो जाती है। जैसे-जैसे आवरणों की तीव्रता कम होती जाती है, वैसे-वैसे आत्मा
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