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प्रस्तावना
होने लगती है। अथवा यों कहिये कि एक बार आत्मा स्वरूप-दर्शन कर लेती है तो फिर उसे स्वरूप-लाभ करने का मार्ग प्राप्त हो ही जाता है।
अविकसित किंवा सर्वथा अध:पतित आत्मा की अवस्था प्रथम गुणस्थान है। इसमें मोह की उक्त दोनों शक्तियों के प्रबल होने के कारण आत्मा की आध्यात्मिक स्थिति बिल्कुल गिरी हुई होती है। इस भूमिका के समय आत्मा चाहे आधिभौतिक उत्कर्ष कितना ही क्यों न कर ले, पर उसकी प्रवृत्ति तात्त्विक लक्ष्य से सर्वथा शून्य होती है। जैसे दिग्भ्रमवाला मनुष्य पूर्व को पश्चिम मानकर गति करता है और अपने इष्ट स्थान को नहीं पाता; उसका सारा श्रम एक तरह से वृथा ही जाता है, वैसे प्रथम भूमिकावाला आत्मा पर-रूप को स्वरूप समझ कर उसी को पाने के लिये प्रतिक्षण लालायित रहता है और विपरीत दर्शन या मिथ्यादृष्टि के कारण राग-द्वेष की प्रबल चोटों का शिकार बनकर तात्त्विक सुख से वञ्चित रहता है। इसी भूमिका को जैनशास्त्र में 'बहिरात्मभाव' किंवा 'मिथ्या दर्शन' कहा है। इस भूमिका में जितनी आत्माएँ वर्तमान होती हैं, उन सबों की भी आध्यात्मिक स्थिति एक-सी नहीं होती। अर्थात् सबके ऊपर मोह की सामान्यतः दोनों शक्तियों का आधिपत्य होने पर भी उसमें थोड़ा-बहुत तर-तमभाव अवश्य होता है। किसी पर मोह का प्रभाव गाढ़तम, किसी पर गाढ़तर
और किसी पर उससे भी कम होता है। विकास करना आत्मा का स्वभाव है। इसलिये जाने या अनजाने, जब उस पर मोह का प्रभाव कम होने लगता है, तब वह कुछ विकास की ओर अग्रसर हो जाता है और तीव्रतम राग-द्वेष को कुछ मन्द करता हुआ मोह की प्रथम शक्ति को छिन्न-भिन्न करने योग्य आत्मबल प्रकट कर लेता है। इसी स्थिति को जैनशास्त्र में 'ग्रन्थि भेद'' कहा गया है।
___ ग्रन्थि-भेद का कार्य बड़ा ही विषम है। राग-द्वेष की तीव्रतम विष-ग्रन्थि एक बार शिथिल व छिन्न-भिन्न हो जाय तो फिर बेड़ा पार ही समझिये; क्योंकि इसके बाद मोह की प्रधान शक्ति दर्शनमोह को शिथिल होने में देर नहीं लगती और दर्शनमोह शिथिल हुआ कि चारित्रमोह की शिथिलता का मार्ग आप ही १. गंठि ति सुदुब्भेओ कक्खडघणरूढगूढगंठि व्व।
जीवस्स कम्मजणिओ घणराग दोसपरिणामो।।११९५।। भिन्नम्मि तम्मि लाभो सम्मत्ताईण मोक्खहेऊणं। सो य दुलहो परिस्समचित्तविघायाइविग्घेहि।।११९६।। सो तत्थ परिस्सम्म घोरमहासमरनिग्गयाइ व्व। विज्जा य सिद्धिकाले जह बहुविग्घा तहा सोऽवि।।११९७।।
विशेषावश्यकभाष्य।
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