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चौथा कर्मग्रन्थ
आप खुल जाता है। एक तरफ राग-द्वेष अपने पूर्ण बल का प्रयोग करते हैं और दूसरी तरफ विकासोन्मुख आत्मा भी उनके प्रभाव को कम करने के लिए अपने वीर्य-बल का प्रयोग करता है। इस आध्यात्मिक युद्ध में यानी मानसिक विकार और आत्मा की प्रतिद्वन्द्विता में कभी एक तो कभी दूसरा जयलाभ करता है । अनेक आत्माएँ ऐसी भी होती हैं जो करीब ग्रन्थिभेद करने लायक बल प्रकट करके भी अन्त में राग-द्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर व उनसे हार खाकर अपनी मूल स्थिति में आ जाती हैं और अनेक बार प्रयत्न करने पर भी रागद्वेष पर जयलाभ नहीं करती। अनेक आत्माएँ ऐसी भी होती हैं, जो न तो हार खाकर पीछे गिरती हैं और न जयलाभ कर पाती हैं, किन्तु वे चिरकाल तक उस आध्यात्मिक युद्ध के मैदान में ही पड़ी रहती हैं । कोई-कोई आत्मा ऐसी भी होती है जो अपनी शक्ति का यथोचित प्रयोग करके उस आध्यात्मिक युद्ध में राग-द्वेष पर जयलाभ कर लेती है। किसी भी मानसिक विकार की प्रतिद्वन्द्विता में इन तीनों अवस्थाओं का अर्थात् कभी हार खाकर पीछे गिरने का, कभी प्रतिस्पर्धा में डटे रहने का और जयलाभ करने का अनुभव हमें अकसर नित्य प्रति हुआ करता है। यही संघर्ष कहलाता है। संघर्ष विकास का कारण है। चाहे विद्या, चाहे धन, चाहे कीर्ति, कोई भी लौकिक वस्तु इष्ट हो, उसको प्राप्त करते समय भी अचानक अनेक विघ्न उपस्थित होते हैं और उनकी प्रतिद्वन्द्विता में उक्त प्रकार की तीनों अवस्थाओं का अनुभव प्रायः सबको होता रहता है। कोई विद्यार्थी, कोई धनार्थी या कोई कीर्तिकाङ्क्षी जब अपने इष्ट के लिये प्रयत्न करता है, तब या तो वह बीच में अनेक कठिनाइयों को देखकर प्रयत्न को छोड़ देता है या कठिनाइयों को पारकर इष्ट-प्राप्ति के मार्ग की ओर अग्रसर होता है। जो अग्रसर होता है, वह बड़ा विद्वान्, बड़ा धनवान् या बड़ा कीर्तिशाली बन जाता है। जो कठिनाइयों से डरकर पीछे भागता है, वह पामर, अज्ञान, निर्धन या कीर्तिहीन बना रहता है और जो न कठिनाइयों को जीत सकता है और न उनसे हार-मानकर पीछे भागता है, वह साधारण स्थिति में ही पड़ा रहकर कोई ध्यान खींचने योग्य उत्कर्ष - लाभ नहीं करता।
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इस भाव को समझाने के लिए शास्त्र' में दृष्टान्त दिया गया है कि तीन प्रवासी कहीं जा रहे थे। बीच में भयानक चोरों को देखते ही तीन में से एक १. जह वा तिन्नि णूस, जंतडविपहं सहावगमणेणं । वेलाइक्कमभीया, तुरन्ति पत्ता यदो चोरा ॥ १२११ ॥ द मग्गतडत्थे, ते एगो मग्गओ पडिनियत्ता । बितिओ गहिओ तइओ, समइक्कंतो पुरं पत्तो ।। १२१२ ।।
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