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________________ प्रस्तावना तो पीछे भाग गया। दूसरा उन चोरों से डर कर नहीं भागा, किन्तु उनके द्वारा पकड़ा गया। तीसरा असाधारण बल तथा कौशल से उन चोरों को हराकर आगे बढ़ गया। मानसिक विकारों के साथ आध्यात्मिक युद्ध करने में जो जय-पराजय होता है, उसका थोड़ा बहुत ख्याल उक्त दृष्टान्त से आ सकता है। प्रथम गुणस्थान में रहने वाली विकासगामी ऐसी अनेक आत्माएँ होती हैं, जो राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाये हुए होती हैं, पर मोह की प्रधान शक्ति को अर्थात् दर्शनमोह को शिथिल किये हुए नहीं होती। यद्यपि वे आध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वथा अनुकूलगामी नहीं होती, तो भी उनका बोध व चरित्र अन्य अविकसति आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है। यद्यपि ऐसी आत्माओं की आध्यात्मिक दृष्टि सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण वस्तुतः मिथ्या-दृष्टि, विपरीत-दृष्टि या असत्-दृष्टि ही कहलाती है, तथापि वह सत्-दृष्टि के समीप ले जानेवाली होने के कारण उपादेय मानी गई है। अडवी भवो मणूसा, जीवो कम्मट्ठिई पहो दीहो। गंठी य भयत्थाणं, रागद्धोसा य दो चोरा।।१२१३।। भग्गो ठिई परिवड्डी, गहिओ पुण गंठिओ गओ तइओ। सम्मत्तपुरं एवं, जोएज्जा तिण्णी करणाई।।१२१४।। (विशेषावश्यकभाष्य) यथा जनास्त्रय: केऽपि, महापुरं यियासवः।। प्राप्ता: क्वचन कान्तारे, स्थानं चौरैर्भयंकरम्।।६२०॥ तत्र द्रुतं द्रुतं यान्तो, ददृशुस्तस्करद्वयम्। तदृष्ट्वा त्वरितं पश्चादेको भीत: पलायितः।।६२१।। गृहीतश्चापरस्ताभ्यामन्यस्त्ववगणय्यतौ। भयस्थानमतिक्रम्य, पुरं प्राप पराक्रमी।।६२२।। दृष्टान्तोपनयश्चात्र, जना जीवा भवोऽटवी। पन्थाः कर्मस्थितिप्रन्थिदेशस्त्विह भयास्पदम्।।६२३।। रागद्वेषौ तस्करौ द्वौ तद्भीतो वलितस्तु सः। ग्रन्थि प्राप्यापि दुर्भावाद्, यो ज्येष्ठस्थितिबन्धकः।।६२४॥ चौररुद्धस्तु स ज्ञेयस्तादृग्रागादिबाधितः। ग्रन्थि भिनत्ति यो नैव, न चापि वलते ततः।।६२५॥ स त्वभीष्टपुरं प्राप्तो, योऽपूर्वकरणाद् द्रुतम्। रागद्वेषावपाकृत्य, सम्यग्दर्शनमाप्तवान्।।६२६। (लोकप्रकाश निर्णयसागर प्रेस, ई.सन् १९२६, सर्ग ३) १. 'मिथ्यात्वे मन्दतां प्राप्ते, मित्राद्या अपि दृष्टयः। मार्गाभिमुखभावेन, कुर्वते मोक्षयोजनम्॥३१॥ श्रीयशोविजयजी-कृत योगावतारद्वात्रिंशिका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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