________________
xii
चौथा कर्मग्रन्थ
बोध, वीर्य व चारित्र के तरतम भाव की अपेक्षा से उस असत्-दृष्टि के चार भेद करके मिथ्या-दृष्टि गुणस्थान की अन्तिम अवस्था का शास्त्र में अच्छा चित्र खींचा गया है। इन चार दृष्टियों में जो वर्तमान होते हैं, उनको सत्-दृष्टि लाभ करने में देरी नहीं लगती।
सद्बोध, सद्वीर्य व सच्चरित्र के तरतम-भाव की अपेक्षा से सत्दृष्टि के भी शास्त्र में चार विभाग किये गये हैं, जिनमें मिथ्यादृष्टि त्यागकर अथवा मोह की एक या दोनों शक्तियों को जीतकर आगे बढ़े हुए सभी विकसित आत्माओं का समावेश हो जाता है अथवा दूसरे प्रकार से यों समझाया जा सकता है कि जिसमें आत्मा का स्वरूप भासित हो और उसकी प्राप्ति के लिये मुख्य प्रवृत्ति हो- वह सद्दृष्टि है। इसके विपरीत जिसमें आत्मा का स्वरूप न तो यथावत् भासित हो और न उसकी प्राप्ति के लिये ही प्रवृत्ति हो, वह असद्दृष्टि है। बोध, वीर्य व चरित्र के तरतम भाव को लक्ष्य में रखकर शास्त्र में दोनों दृष्टि के चारचार विभाग किये गये हैं, जिनमें सब विकासगामी आत्माओं का समावेश हो जाता है और जिनका वर्णन पढ़ने से आध्यात्मिक विकास का चित्र आँखों के सामने नाचने लगता है।
शारीरिक और मानसिक द:खों की संवेदना के कारण अज्ञात रूप में ही गिरि-नदी-पाषाण न्याय से जब आत्मा का आवरण कुछ शिथिल होता है और
१. सच्छ्रद्धासंगतो बोधो, दृष्टिः सा चाष्टधोदिता।
मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, परा।।२५।। तृणगोमयकाष्ठाग्नि,-कणदीप्रप्रभोपमा। रत्नतारार्कचन्द्राभा, क्रमेणेक्ष्वादिसन्निभा।।२६।। आद्याश्चतस्रः सापाय,-पाता मिथ्यादृशामिह। तत्त्वतो निरपायाश्च, भिन्नग्रन्थेस्तथोत्तराः।।२८॥
(योगावतारद्वात्रिंशिका) २. इसके लिये देखिये, श्रीहरिभद्रसूरि-कृत योगदृष्टिसमुच्चय तथा उपाध्याय
यशोविजयजी-कृत २१ से २४ तक की चार द्वात्रिंशिकाएँ। ३. यथाप्रवृत्तकरणं, नन्वनाभोगरूपकम्।
भवत्यनाभोगतश्च, कथं कर्मक्षयोऽङ्गिनाम्॥६०७।। 'यथा मिथो घर्षणेन, ग्रावाणोऽद्रिनदीगताः। स्युश्चित्राकृतयों ज्ञानशून्या अपि स्वभावतः।।६०८॥ तथा यथाप्रवृत्तात्स्युरप्यनाभोगलक्षणात्। लघुस्थितिककर्माणो, जन्तवोऽत्रान्तरेऽथ च।।६०९॥ लोकप्रकाश, सर्ग ३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org