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मार्गणास्थान-अधिकार
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वह 'त्रीन्द्रिय जाति'। (४) चतुरिन्द्रिय जाति में इन्द्रियाँ चार (उक्त तीन तथा नेत्र) होती हैं और जिसकी प्राप्ति चतुरिन्द्रिय जाति-नामकर्म के उदय से होती है। (५) पञ्चेन्द्रिय जाति में उक्त चार और कान, ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं और उसके होने में निमित्त पञ्चेन्द्रिय जाति-नामकर्म का उदय है।
(३) कायमार्गणा के भेदों का स्वरूप (१) पार्थिव शरीर, जो पृथ्वी से बनता है, वह 'पृथ्वीकाय'। (२) जलीय शरीर, जो जल से बनता है, वह 'जलकाय'। (३) तैजसशरीर, जो तेज का बनता है, वह 'तेज:काय'। (४) वायवीय शरीर, जो वायु-जन्य है, वह 'वायुकाय'। (५) वनस्पतिशरीर, जो वनस्पतिमय है, वह 'वनस्पतिकाय' है। ये पाँच काय, स्थावर-नामकर्म के उदय से होते हैं और इनके स्वामी पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीव हैं। (६) जो शरीर चल-फिर सकता है और जो त्रस-नामकर्म के उदय से प्राप्त होता है, वह 'त्रसकाय' है। इसके धारण करनेवाले द्वीन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक सब प्रकार के जीव हैं।
(४) योगमार्गणा के भेदों का स्वरूप (१) जीव का वह व्यापार 'मनोयोग' है, जो औदारिक, वैक्रिय या आहारक-शरीर के द्वारा ग्रहण किये हुये मनोद्रव्य-समूह की मदद से होता है। (२) जीव के उस व्यापार को 'वचनयोग' कहते हैं, जो औदारिक, वैक्रिय या आहारक-शरीर की क्रिया द्वारा संचय किये हुये भाषा-द्रव्य की सहायता से होता है। (३) शरीरधारी आत्मा की वीर्य-शक्ति का व्यापार-विशेष 'काययोग' कहलाता
है।।१०॥
(५) वेदमार्गणा के भेदों का स्वरूप वेय नरित्थिनपुंसा, कसाय कोहमयमायलोभ ति। मइसुयवहिमणकेवल,-बिहंगमइसुअनाण सागारा।।११।। वेदा नरस्त्रिनपुंसकाः, कषाया क्रोधमदमायालोमा इति। मतिश्रुतावधिमनः केवलविभङ्गमतिश्रुताज्ञानानि साकाराणि।।११।।
अर्थ-पुरुष, स्त्री और नपुंसक, ये तीन वेद हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार भेद कषाय के हैं। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय और केवलज्ञान १. देखिये, परिशिष्ट 'ज।
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