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________________ चौथा कर्मग्रन्थ है। ऐसी शङ्का करना व्यर्थ है। क्योंकि प्रथम समय में, आहाररूप से ग्रहण किये हुए पुद्गल उसी समय शरीररूप में परिणत होकर दूसरे समय में आहार लेने में साधन बन सकते हैं, पर अपने ग्रहण में आप साधन नहीं बन सकते ॥ २५ ॥ तिरिइत्थिअजयसासण, - अनाणउवसमअभव्वमिच्छेसु । ते उरलदुगूण तिर्यकस्त्र्ययतसासादनाज्ञानोपशमाभव्यामथ्यात्वेषु । तेराहारदुगूणा, सुरनरए।। २६ । त्रयोदशाहारकीद्वकोनास्त औदारिकद्विकोनाः सुरेनरके ।। २६ ।। अर्थ - तिर्यञ्चगति, स्त्रीवेद, अविरति, सास्वादन, तीन अज्ञान, उपशम सम्यक्त्व, अभव्य और मिथ्यात्व, इन दस मार्गणाओं में आहारक-द्विक के सिवाय तेरह योग होते हैं। देवगति और नरकगति में उक्त तेरह में से औदारिक-द्विक के सिवाय शेष ग्यारह योग होते हैं ॥ २६ ॥ ७० भावार्थ-निर्यञ्चगति आदि उपर्युक्त दस मार्गणाओं में आहारक-द्विक के सिवाय शेष सब योग होते हैं। इनमें से स्त्रीवेद और उपशम सम्यक्त्व को छोड़कर शेष आठ मार्गणाओं में आहारक योग न होने का कारण सर्वविरति का अभाव ही है। स्त्रीवेद में सर्वविरति का संभव होने पर आहारकयोग न होने का कारण स्त्रीजाति को दृष्टिवाद' - जिसमें चौदह पूर्व हैं- पढ़ने का निषेध है। उपशम सम्यक्त्व में सर्वविरति का संभव है तथापि उसमें आहारक योग न मानने का कारण यह है कि उपशम सम्यक्त्वी आहारक लब्धि का प्रयोग नहीं करते। तिर्यञ्चगति में तेरह योग कहे गये हैं। इनमें से चार मनोयोग, चार वचनयोग और एक औदारिक काययोग, इस तरह से ये नौ योग पर्याप्त अवस्था में होते हैं। वैक्रिय काययोग और वैक्रिय मिश्रकाययोग पर्याप्त अवस्था में होते हैं सही; पर सब तिर्यञ्चों को नहीं; किन्तु वैक्रियलब्धि के बल से वैक्रियशरीर बनानेवाले कुछ तिर्यञ्चों को ही। कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग, तिर्यञ्चों को अपर्याप्त अवस्था में ही होते हैं। स्त्रीवेद' में तेरह योगों का संभव इस प्रकार है— मन के चार, वचन के चार, दो वैक्रिय और एक औदारिक ये ग्यारह योग मनुष्य - तिर्यञ्च - स्त्री को पर्याप्त अवस्था में, वैक्रिय मिश्रकाययोग देवस्त्री को अपर्याप्त अवस्था में, १. देखिये, परिशिष्ट 'त' । २. स्त्रीवेद का मतलब इस जगह द्रव्य-स्त्रीवेद से ही है। क्योंकि उसी में आहारक योग का अभाव घट सकता है। भाव स्त्रीवेद में तो आहारक योग का संभव है अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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