SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्गणास्थान - अधिकार आठ मार्गणाओं में योग का विचार ऊपर जिन पन्द्रह योगों का विचार किया गया है, उनमें से कार्मण काययोग ही ऐसा है, जो अनाहारक अवस्था में पाया जाता है। शेष चौदह योग, आहारकअवस्था में ही होते हैं। यह नियम नहीं है कि अनाहारक अवस्था में कार्मण काययोग होता ही है; क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में अनाहारक अवस्था होने पर भी किसी तरह का योग नहीं होता। यह भी नियम नहीं है कि कार्मण काययोग के समय, अनाहारक- अवस्था अवश्य होती है, क्योंकि उत्पत्ति-क्षण में कार्मण काययोग होने पर भी जीव, अनाहारक नहीं होता, बल्कि वह, उसी योग के द्वारा आहार लेता है। परन्तु यह तो नियम ही है कि जब जीव की अनाहारकअवस्था होती है, तब कार्मण काययोग के सिवाय अन्य योग होता ही नहीं। इसी से अनाहारक - मार्गणा में एक मात्र कार्मण काययोग माना गया है ||२४|| नरगइपणिंदितसतणु, - अचक्खुनरनपुकसायसंमदुगे । संनिछलेसाहारग, - भवमइमुओहिदुगे सव्वे ।। २५ ।। नरगतिपञ्चेन्द्रियत्रसतन्वचक्षुर्नरनपुंसककषायसम्यक्त्वद्विके । संज्ञिषड्लेश्याहारकभव्यमितिश्रुतावधिद्विके सर्वे ।। २५ ।। अर्थ - मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, त्रसकाय, काययोग, अचक्षुर्दर्शन, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, चार कषाय, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक, ये दो सम्यक्त्व, संज्ञी, छह लेश्याएँ, आहारक, भव्य, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधि-द्विक, इन छब्बीस मार्गणाओं में सब - पन्द्रहों योग होते हैं ॥ २५ ॥ - भावार्थ - उपर्युक्त छब्बीस मार्गणाओं में पन्द्रह योग इसलिये कहे गये हैं कि इन सब मार्गणाओं का सम्बन्ध मनुष्य-पर्याय के साथ है और मनुष्य-पर्याय में सब योगों का सम्भव है। ६९ यद्यपि कहीं-कहीं यह कथन मिलता है कि आहारक मार्गणा में कार्मणयोग नहीं होता, शेष चौदह योग होते हैं । किन्तु वह युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता; क्योंकि जन्म के प्रथम समय में, कार्मणयोग के सिवाय अन्य किसी योग का सम्भव नहीं है। इसलिये उस समय, कार्मणयोग के द्वारा ही आहारकत्व घटाया जा सकता है। Jain Education International जन्म के प्रथम समय में जो आहार किया जाता है, उसमें गृह्यमाण पुद्गल ही साधन होते हैं, इसलिये उस समय, कार्मण काययोग मानने की जरूरत नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy