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चौथा कर्मग्रन्थ
जिससे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है जिसके बनने में भिंडी के समान थोड़े पुद्गलों की आवश्यकता होती है और जो मांस-हड्डी और नस आदि अवयवों से बना होता है, वही शरीर, 'औदारिक' कहलाता है।
(६) वीर्य-शक्ति का जो व्यापार, औदारिक और कार्मण इन दोनों शरीरों की सहायता से होता है, वह 'औदारिक मिश्रकाययोग' है। यह योग, उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त-अवस्था पर्यन्त सब औदारिक शरीरी जीवों को होता है।
__ (७) सिर्फ कार्मणशरीर की मदत से वीर्य-शक्ति की जो प्रवृत्ति होती है, वह 'कार्मण काययोग' है। यह योग, विग्रहगति में तथा उत्पत्ति के प्रथम समय में सब जीवों को होता है। और केवलिसमुद्धात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में केवली को होता है। 'कार्मणशरीर' वह है, जो कर्म-पुद्गलों से बना होता है और आत्मा के प्रदेशों की जड़, कार्मणशरीर ही है अर्थात् जब इस शरीर का समूल नाश होता है, तभी संसार का उच्छेद हो जाता है। जीव, नये जन्म को ग्रहण करने के लिये जब एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है, तब वह इसी शरीर से वेष्टित रहता है। यह शरीर इतना सूक्ष्म है कि वह रूपवाला होने पर भी नेत्र आदि इन्द्रियों का विषय बन नहीं सकता। इसी शरीर को दूसरे दार्शनिक ग्रन्थों में 'सूक्ष्मशरीर' या 'लिङ्गशरीर' कहा है।
यद्यपि तैजस नाम का एक और भी शरीर माना गया है, जो कि खाये हुए आहार को पचाता है और विशिष्ट लब्धि-धारी तपस्वी, जिसकी सहायता से तेजोलेश्या का प्रयोग करते हैं। इसलिये यह शङ्का हो सकती है कि कार्मण काययोग के समान तैजस काययोग भी मानना आवश्यक है।
इस शङ्का का समाधान यह है कि तैजसशरीर और कार्मणशरी का सदा साहचर्य रहता है। अर्थात् औदारिक आदि अन्य शरीर, कभी-कभी कार्मणशरीर को छोड़ भी देते हैं, पर तैजसशरीर उसे कभी नहीं छोड़ता। इसलिये वीर्यशक्ति का जो व्यापार, कार्मणशरीर के द्वारा होता है, वही नियम से तैजसशरीर के द्वारा भी होता रहता है। अत: कार्मण काययोग में ही तैजस काययोग का समावेश हो जाता है, इसलिये उसको जुदा नहीं गिना है।
१. 'उक्तस्य सूक्ष्मशरीरस्य स्वरूपमाह-'सप्तदशैकं लिङ्गम्।'
___-सांख्यदर्शन-अ. ३, सू. ९।
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