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मार्गणास्थान-अधिकार उत्थापन- नहीं। वचनयोग के भी मनोयोग की तरह, तत्त्व-दृष्टि से सत्य और असत्य, ये दो ही भेद समझने चाहिये।
काययोग के भेदों का स्वरूप ___(१) सिर्फ वैक्रियशरीर के द्वारा वीर्य-शक्ति का जो व्यापार होता है, वह 'वैक्रिय काययोग' है। यह योग, देवों तथा नारकों को पर्याप्त-अवस्था में सदा ही होता है और मनुष्यों तथा तिर्यञ्चों को वैक्रियलब्धि के बल से वैक्रियशरीर धारण कर लेने पर ही होता है। 'वैक्रियशरीर' उस शरीर को कहते हैं, जो कभी एकरूप और कभी अनेक रूप होता है तथा कभी छोटा, कभी बड़ा, कभी आकाश-गामी, कभी भूमि-गामी, कभी दृश्य और कभी अदृश्य होता है। ऐसा वैक्रिय शरीर, देवों तथा नारकों को जन्म-समय से ही प्राप्त होता है; इसलिये वह 'औपातिक' कहलाता है। मनुष्यों तथा तिर्यञ्चों का वैक्रिय शरीर ‘लब्धिप्रत्यय' कहलाता है; क्योंकि उन्हें ऐसा शरीर, लब्धि के निमित्तं से प्राप्त होता है, जन्म से नहीं।
(२) वैक्रिय और कार्मण तथा वैक्रिय और औदारिक, इन दो-दो शरीरों के द्वारा होने वाला वीर्य-शक्ति का व्यापार, 'वैक्रिय मिश्रकाययोग' है। पहले प्रकार का वैक्रियमिश्रकाययोग, देवों तथा नारकों को उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त-अवस्था तक रहता है। दूसरे प्रकार का वैक्रिय मिश्रकाययोग, मनुष्यों और तिर्यञ्चों में तभी पाया जाता है, जब कि वे लब्धि के सहारे से वैक्रियशरीर का आरम्भ और परित्याग करते हैं।
(३) सिर्फ आहारक शरीर की सहायता से होनेवाला वीर्य-शक्ति का व्यापार, ‘आहारक काययोग' है।
(४) 'आहारक मिश्रकाययोग' वीर्य-शक्ति का वह व्यापार है, जो आहारक और औदारिक, इन दो शरीरों के द्वारा होता है। आहारकशरीर धारण करने के समय, आहारकशरीर और उसका आरम्भ-परित्याग करने के समय, आहारक मिश्रकाययोग होता है। चतुर्दशपूर्वधर मुनि, संशय दूर करने, किसी सूक्ष्म विषय को जानने अथवा समृद्धि देखने के निमित्त, दूसरे क्षेत्र में तीर्थङ्कर के पास जाने के लिये विशिष्ट-लब्धि के द्वारा आहारकशरीर बनाते हैं। __ (५) औदारिक काययोग, वीय-शक्ति का वह व्यापार है, जो सिर्फ औदारिकशरीर से होता है। यह योग, सब औदारिक शरीरी जीवों को पर्याप्तदशा में होता है। जिस शरीर को तीर्थङ्कर आदि महान् पुरुष धारण करते हैं,
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