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________________ चौथा कर्मग्रन्थ (२) जिस मनोयोग से वस्तु के स्वरूप का विपरीत चिन्तन हो; जैसेजीव एक ही है या नित्य ही है, इत्यादि, वह 'असत्यमनोयोग' है। (३) किसी अंश में यथार्थ और किसी अंश में अयथार्थ, ऐसा मिश्रित चिन्तन, जिस मनोयोग के द्वारा हो, वह 'मिश्रमनोयोग' है। जैसे-किसी व्यक्ति में गुण-दोष दोनों के होते हुए भी उसे सिर्फ दोषी समझना। इसमें एक अंश मिथ्या है; क्योंकि दोष की तरह गुण भी दोष रूप से ख़याल किये जाते हैं। (४) जिस मनोयोग के द्वारा की जाने वाली कल्पना विधि-निषेधशून्य हो-जो कल्पना, न तो किसी वस्तु का स्थापन ही करती हो और न उत्थापन, वह 'असत्यामृषामनोयोग' है। जैसे-हे देवदत्त! हे इन्द्रदत्त! इत्यादि। इस कल्पना का अभिप्राय अन्य कार्य में व्यग्रव्यक्ति को सम्बोधित करना मात्र है, किसी तत्त्व के स्थापन-उत्थापन का नहीं। उक्त चार भेद, व्यवहारनय की अपेक्षा से हैं; क्योंकि निश्चयदृष्टि से सबका समावेश सत्य और असत्य, इन दो भेदों में ही हो जाता है। अर्थात जिस मनोयोग में छल-कपट की बुद्धि नहीं हैं, चाहे मिश्र हो या असत्यामृष, उसे 'सत्यमनोयोग' ही समझना चाहिये। इसके विपरीत जिस मनोयोग में छल-कपट का अंश है, वह 'असत्यमनोयोग' ही है। वचनयोग के भेदों का स्वरूप (१) जिस 'वचनयोग' के द्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप स्थापित किया जाय; जैसे—यह कहना कि जीव सद्रूप भी है और असद्रूप भी, वह 'सत्य वचनयोग' है। (२) किसी वस्तु को अयथार्थरूप से सिद्ध करनेवाला वचन योग, 'असत्य वचनयोग' है; जैसे—यह कहना कि आत्मा कोई चीज़ नहीं है या पुण्य-पाप कुछ भी नहीं है। (३) अनेक रूप वस्तु को एकरूप ही प्रतिपादन करनेवाला वचनयोग 'मिश्रवचनयोग' है। जैसे-आम, नीम आदि अनेक प्रकार के वृक्षों के वन को आम का ही वन कहना, इत्यादि। (४) जो 'वचनयोग' किसी वस्तु के स्थापन-उत्थापन के लिये प्रवृत्त नहीं होता, वह 'असत्यामृषवचनयोग' है, जैसे-किसी का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिये कहना कि हे भोजदत्त! हे मिश्रसेन! इत्यादि पद सम्बोधनमात्र हैं, स्थापन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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